Saturday, October 08, 2022

गुम नाम




पिछले महीने भूपिन्दर सिंह का देहांत हो गया। बड़ी बड़ी ऑंखों पे घने परदों सी पलकों वाले भूपिन्दर जिनको लोग प्यार से भूपि जी भी कहते थे। 

बहुत ही यूनीक गहरी, अनुनासिक आवाज़ के मालिक भूपि जी सत्तर के दशक में मिडिल क्लास की आवाज़ बन गए थे- “एक अकेला इस शहर में” से लेकर “ज़िन्दगी सिगरेट का धुआँ”। शायद एक्सपेरिमेंटल फ़िल्मों के लिए उनकी ही आवाज़ की ज़रूरत थी। 

अगर आप “टी वी एफ” के फ़ैन हैं तो आपने नोटिस किया ही होगा कि “परमानेन्ट रुममेट्स” में उनके एक गाने को क्या ज़बर्दस्त सेट किया गया है - “एक ही ख़्वाब कई बार देखा है मैंने”। ये गाना धर्मेंद्र पर फ़िल्माया गया था और भूपिन्दर की आवाज़ क्या सटीक बैठती है उनपर। नए रूपांतरण में बैचलर्स पैड में एक लड़की का आना, वक़्त का थम जाना और भूपिन्दर की आवाज़ - फिर से वैसी ही सटीक। बेहतरीन लेखनी, अव्वल चित्रांकन और आवाज़, दो-तीन जेनेरेशन पुरानी पर जो दोनों दृश्यों में बिल्कुल बराबर असर करती है।


उसी फिल्म, किनारा, के २-३ और गाने जैसे “नाम गुम जाएगा”, “मीठे बोल बोले”, तो जैसे उनके लिए ही बने थे। पंचम ने भी भूपिन्दर की बाकी हुनर का भरपूर इस्तेमाल करने के बाद आख़िरकार उनके गायिकी का भी बख़ूबी उपयोग किया।


भूपिन्दर के ही एक गाने ने हमें एक और नगीने से परिचय कराया - निदा फ़ाज़ली!

“कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता,

कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता”


“दम मारो दम” हो या “चुरा लिया है तुमने जो दिल को” का रोमांटिक गिटार, भूपिन्दर कई विधाओं में दक्ष थे।

“दिल ढूँढता है” में जितना जादू गुलज़ार के शब्दों का है, उतना ही योगदान भूपिन्दर की आवाज़ का है। “जाड़ों की नर्म धूप” वाले अंतरे में तो उनकी आवाज़ की गर्माहट तक को महसूस किया जा सकता है।


अस्सी के दशक में उनके ग़ज़लों ने भी ख़ूब धमाल मचाया और साथ ही साथ “आवाज़ दी है” या “किसी नजर को तेरा” ने जैसे एक हॉंटिंग मेमरी बना दी।


उनके बारे में कुछ लेख पढ़े तो ज्ञात हुआ कि वो हक़ीक़त फ़िल्म से शुरुआत करते हुए रफ़ी, तलत जैसे दिग्गजों के साथ गाना गा चुके हैं। और कई फ़िल्मों में अपने ही उपर गाते हुए फ़िल्माए भी गए हैं। पर उनकी आवाज़ चूँकि टिपिकल हिन्दी फ़िल्म हीरो को सूट नहीं करती थी इसलिए अमूमन उनको बैकग्राउंड सिचूएशन में ही इस्तेमाल किया जाता रहा।


सत्तर-अस्सी के दशक में जब एक्सपेरिमेंटल सिनेमा का दौर शुरू हुआ तो भूपिन्दर को एक नया स्टेज मिला। 

फ़ारुख़ शेख, नसीरुद्दीन शाह, आमोल पालेकर के लिए उन्होंने कुछ यादगार गीत गाए। उससे पहले गुलज़ार ने अपनी फ़िल्मों के लिए भूपि जी का कुछ इस तरह इस्तेमाल किया कि वो गाने फ़िल्मी गीतों के लिए एक अलग ही आयाम बन गए।


“जब तारे ज़मीं पर…तारे और ज़मीं पर? ऑफ़ कोर्स” - ये इतना कैजु़अल वाला ऑफ़ कोर्स, जब से सुना था हमें भी बोलने का बहुत मन था। और फिर हमने ट्विटरपर पढ़ा कि बहुत सारे लोग इस “ऑफ़ कोर्स” के कायल थे।

और एक कहानी तो हम हर बार दोहराते हैं कि कैसे हमें एक गाने का सिर्फ़ एक शब्द याद था और उससे डी ने पूरा गाना ढूँढ लिया था। निस्संदेह डी के गाने का टेस्ट और पहचान ज़बरदस्त है पर इस बार ज़्यादा श्रेय हम देंगे भूपि जी की अंदाज़-ए-गायकी को और एक आना हमारी मिमिक्री को।

भूपि जी के ही गाए हुए शब्द उनके लिए उपयुक्त बैठते हैं -

“नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा

मेरी आवाज़ ही पहचान है, ग़र याद रहे”

रोग

जिस तरह वो भैया अपनी आपबीती सुनाते हैं वैसी बातें करना एक आर्ट है। एक-एक शब्द ऐसे कि आप ही बीमार फ़ील करने लगें। निस्संदेह कष्ट में थे, जैसा कि उनके विवरण से लग रहा था। पर किसी भी कष्ट की ऐसी साहित्यिक विवेचना मेरे लिए एक नवीन अनुभव था।

दुर्गा पूजा का समय था और हम थे भागलपुर में, अपनी जन्मभूमि, जहॉं अनगिनत श्री श्री दुर्गा पूजा समिति न सिर्फ़ हमारा स्वागत कर रही थी बल्कि करते रहने का सार्वजनिक ऐलान भी कर रही थी।

छुट्टियों का हमारा उद्देश्य होता है घर पर एकांत में विश्राम और इसलिए हम लोगों, रिश्तेदारों से कम ही घुलते मिलते हैं। ऐसे में अपनी दिनचर्या में ख़लल से हम उद्विग्न हो जाते हैं। लेकिन कुछ चीज़ें अपरिहार्य होती हैं जैसे विजयादशमी के दिन बड़े-बूढ़ों से आशीर्वाद लेना। तो बस हम फँस गए।

शाम होते होते घर बहुत ही भरा-भरा सा हो गया। २ बहनें, उनके पति, उनके बच्चे और दो तीन और भाई।

जब जमावड़े में थोड़ा ज़्यादा उत्साह बढ़ने लगा हम बाहर वाले रुम, जिसको स्थानीय शब्दों में ड्राइंग रुम कहा जाता है, में आकर बैठ गए। और यहॉं शुरु हुआ रोग का व्याख्यान।

बात शुरु हुई जब किसी ने पैथोलॉजिकल टेस्ट्स की बात छेड़ी। सस्ते-महंगे टेस्ट, क्या-क्या और कौन-कौन से टेस्ट अनिवार्य होने चाहिए, इत्यादि से शुरु हुई बात मुड़ गई भिन्न क़िस्मों की बीमारी की तरफ।

“हम पहले सब चीज़ पचा लेते थे, पर अब बहुत दिक़्क़त होता है।”, भैया अपनी बात शुरु करते हैं।

“कल बारह नम्बर गुम्टी से ओल लेकर आए थे, बोला कि देसला है। उसके बाद जो बनाकर खाए, बाप रे बाप, ऐसा ओल था - पूरा मुँह में दाना-दाना। होंठ सब फूल गया। देखो अभी लग रहा है फूला हुआ?”

“हॉं, लग रहा है हल्का अभी भी”, हमने भी सान्त्वना वाली एक हामी भरी।

“तुम विश्वास नहीं करोगे, दो दिन से जो पेट में दर्द हुआ है। ऐसा लगता था कि छोटा-छोटा बुलबुला पूरा पेट में उपर नीचे कर रहा है। सोते थे तो गड़-गड़ बजता था और एकदम मरोड़ देता था”, दोनों हाथ उपर नीचे करके उन्होंने “गड़-गड़” शब्द को रूपान्तरित किया।
“लैट्रिन जब गए तो लगा जैसे अतड़ी निकल गया। तीन बार, चार बार - वही हाल। पॉंचवॉं बार कुछ हुआ ही नहीं। प्रेशर पूरा दिए लेकिन कुछ नहीं। फिर अचानक से पूरा दर्द जैसे पैर में आ गया”, भैया अब रुकने वाले नहीं थे। और हम शुरुआती वाक्य के पहले शब्द को सुनकर किसी तरह अपनी हँसी दबा रहे थे।

“पैर का दर्द ऐसा हुआ कि मत पूछो। पूरा जोर से रस्सी दोनो पैर में बाँध दिए, एक दो घंटा तक। तब जाकर थोड़ा आराम मिला।” 

हमें लगा कि बहुत कष्ट में रहे होंगे और रस्सी से पैर बाँधने की अगर नौबत आ गई मतलब काफ़ी सीरियस मामला था। जब वो रुके तब हम सोचने लगे कि शायद किसी ने सच ही कहा है कि दुःख बाँटने से घटता है। भैया ने जैसे मेरे मन की बात पढ़ ली और अपने कोटे के बाक़ी बचे दुःख को भी घटाने का मन बना लिया।

“ऐसा न तबियत ख़राब रह रहा है। तुम हमसे दो महीना पहले मिलते तो पहचान नहीं पाते।” इतना बोलते ही उछल कर मेरे पेट को अपने बाएँ हाथ से पकड़कर बताने लगे।

“ऐसा लगता था कि एक रॉड लगा दिया है - यहॉं से यहाँ तक”, मेरे डायफ्राम से लेकर निचले उदर तक हाथ फेरने लगे। इतना नाटकीय अंदाज़ था कि हम हड़बड़ा कर उठ बैठे।

“मुँह पूरा काला! पूरा पेट लगता था फूला हुआ; हमेशा गैस। छाती में लगता था मकड़ी के जाल के जैसा महीन धागा पकड़ लिया है। बंधा-बंधा लगता था एकदम! हाथ पैर ज़रा सा हिलाते थे तो डकार पे डकार”, हम उनसे थोड़ी दूर बैठ गए थे और जब उनको फ़िज़िकल कॉन्टैक्ट का मौक़ा नहीं मिला तो उन्होंने अपनी ही छाती पर हाथ फेर कर उन्होंने महीन धागों और डकार का उपक्रम किया।

“एक दिन क्या हुआ पता है! पैर पूरा हवा हो गया। स्कूटी चला रहे हैं लेकिन पैर पता ही नहीं चल रहा है।”

“अरे ऐसे तो एक्सीडेंट हो जाएगा!”, हमने उनके मोनोलॉग को ब्रेक किया।

“अचानक होता है! फिर अपने आप ठीक भी हो जाता है। हम दिखाए डाक्टर को तो बायॉप्सी किया था; जैसे डाला मुँह में तार पूरा उल्टी और पेट पचक गया। फिर लैट्रिन गए वैसे पेट में दर्द; पैर में दर्द लेकिन पहला बार ही हुआ है। गला ऐसा लगता था कि कोई पकड़ा हुआ है, यहाँ पर।” अपने ही हाथ से अपना गला दबाकर वो फिर से बहुत ही नाटकीय ढंग से समझाने की कोशिश कर कहे थे कि उनके गले में भी कुछ भयंकर क़िस्म की बीमारी हो गई थी।

“आप एक फ़ुल बॉडी टेस्ट करवा लीजिए, लग रहा है कुछ अन्दरूनी प्रॉब्लम है।”, हम अब इस बात को और लम्बा नहीं खींच सकते थे।

“आप अभी भी गुटखा खाते हैं क्या?”

जवाब तो हमें पता ही था पर पब्लिकलि किसी से ऐसे सवाल पूछने और साथ में सटल हिंट भी देना कि आपके सारी बीमारी की जड़ बस आपकी वही व्यसन है, का सार था कि बस भैया अब आप सेल्फ़ कंट्रोल सीखिए और हमें अपने रोग चालीसा के पाठ से मुक्ति दीजिए।

Friday, July 08, 2022

भागलपुरिया रेनेसॉंस

सन सत्तानवे का वो दसवीं बैच था ही ऐसा कि रेनेसॉंस जैसा शब्द ही उसके लिए उपयुक्त होगा। चुन चुन कर हीरे जवाहरात से जड़ा हुआ जत्था था। कुल मिलाकर क़रीब १२० के इस ग्रुप में कम से कम पंद्रह बीस तो ऐसे थे जो एक से ज़्यादा विधा में पारंगत थे - पढ़ाई के अलावा। और जो बचे वो अगर एक आयामी भी थे तो ज़िंदगी के मज़े लेने तो ज़रूर जानते थे। कुंठा इन्हें छू भी नहीं पाती थी।


चलिए कुछ किरदार चुनते हैं और उनके हरफ़नमौलापन की चर्चा करते हैं -

अब ऐसे हीरे पन्नों में कहाँ से श्रीगणेश करें ये भी एक विषम मुद्दा हुआ जा रहा है। चलिए रैंडम फ़ॉरेस्ट ही उठाया जाए। और रेफ़्रेंस सत्तानवे ही रहेगा क्योंकि अब सर पर गिने चुने बाल, तोंद फुलाए अधेड़ों की बात करें तो क़िस्सा अलग ही रुख़ ले लगा।


पगलु - क्या गाता था! किशोर, रफ़ी सा मंत्रमुग्ध कर जाता । और वही फिर खेल के मैदान में रोनाल्डो (ब्राज़ील वाला) सा माहिर! आपको क्या लगा बस - अरे नहीं, क्रिकेट और फुटबॉल दोनों में धुरंधर। तिसपर से खुश मिज़ाज इतना कि इनके शब्दों से पहले इनकी मुस्कान आप तक पहुँच जाती थी।


तानसेन - आहा हा! कवर ड्राइव मार्क वॉ सरीखे, मक्खन पर गर्म चाकू सा। ओपनर के लिए डिफ़ॉल्ट चॉइस।पक्का जेंटलमैन, बहुत शातिर दिमाग़ जो पढ़ाई और मौज-मस्ती में बराबर बंटता था। चटकोर ऐसा कि उस चक्कर में एकाध बार प्राचार्य महोदय की नज़र में चढ़ चुका था - जो जानते थे कि बच्चों की कितनी और कहाँ छँटनी करनी है। 


पोंगी - लेखनी हो, फ़्री किक हो या दिमाग़ी दॉंव-पेंच, सब में माहिर! और ऐसा माहिर कि उपनाम के पीछे कहानी बताने की आवश्यकता न हो शायद। पोंगी, पोंगा पंडित का ही अपभ्रंश है। दिमाग़ और याददाश्त का ऐसा कॉकटेल कि प्राचार्य महोदय के शेक्सपीरियन ड्रामेबाज़ी को वहीं के वहीं धराशायी करने में सक्षम। लेकिन भुटानी और दिप्पा इनकी इतनी टॉंग खिंचते थे कि कभी भी, कम से कम, हमारे बीच इनको वैसी इज़्ज़त न मिल पाई। मुहल्ले की मुर्ग़ी आख़िर दाल बराबर ही होती है।


गोलका - शारीरिक विशिष्टता को दरकिनार कर देते हैं। यह लड़का टेबल टेनिस कैसे खेल सकता था। छोटकी राहुल और कैफ़ी के साथ ये हमारे जोकर, राफ़ा और फ़ेडरर की तिकड़ी थी। और वैसा ही क्रिकेटर - हम नहीं बोल रहे पर सब कहते थे कि इंज़माम-उल-हक़ वाली वाईभ्स आती थी इनसे। गायकी तो इनकी विशिष्टता थी ही। पेट से इतना मधुर गाने का चलन जिसने भी शुरु किया हो, गोलका ने इसे एक नए स्तर पर पहुँचा दिया था।


चड्डी सिंह - अव्वल दर्जे का कलाकार। गाना गवा लीजिए तो वैसे ही हर हर्फ़ में खनक और उपर्लिखित सारे गायकों को काँटे की टक्कर देने वाला, स्केचिंग करवा लीजिए तो क्या हर्ज और क्या वाटरसन। आब-ए-हयात का ऐसा बीमार कि चार लड़कियों को खड़ा कर दीजिए गोल पोस्ट के पीछे और मजाल है कि एक भी पेनल्टी गोल में घुस जाए!


ऑंटी - उस ज़माने में सिद्धार्थ बसु के क्विज़ प्रोग्राम में शिरकत कर आए थे जब वो “दी सिद्धार्थ बसु” हुआ करते थे। अक्खड़ तो थे ही और इनके कटाक्ष से आहत होकर मुँह छिपाने की जगह भी नहीं मिलती थी।


झा बिरादर्स - यारों के यार। द्रुत दिमाग़ और वैसा ही कार्यान्वयन। प्रैक्टिकल जोक्स तो ऐसे कि शिकार खुद दाद देने पर मजबूर हो जाए। विमल, विक्रांत और पोंगी  अफ़सानानिगार की तिकड़ी - जिनके लेख पूरे क्लास के सम्मुख पढ़े जाते थे। अमल एकदम खरा सोना, तौलिए तो एकाध पाव उपर ही!


कैफ़ी - आलू। किसी भी माहौल में घुलने की क्षमता रखने वाला। क्लास में टीचरों की चुटकी लेने वाला जीवट। हमारी टीम का वसीम अकरम और चंडाल चौकड़ी का सरगना। और पच्चीस साल बाद इस समूह को चिपकाने वाला गोंद!


चिकना - मोहल्ले का स्टार खिलाड़ी और पहला ऐसा केस जो सिर्फ़ अपने सन्नी टोनी के भरोसे टीम में शामिल नहीं होता था। रक्षित और चिकना हुए हमारे ओजी। अपशब्द के उच्चारण से लेकर उनका सही उपयोग, इतना गहन ज्ञान और उनका इतनी सरलता से वितरण वो भी मुफ़्त- ऐसे सन्त महात्मा बिरले ही अवतरित होते हैं।


पीडी -  जितने आराम से केमिकल फ़ार्मूला बकते हुए इक्वेशन बैलेंस करता था उतने ही मज़े से फ़ील्ड गोल कर सकता था। न चाहते हुए भी खटास का चहेता। 


पाठक - सबका पंचिंग बैग। हमारा पड़ोसी और हमको बुरा भी लगे कि दोस्ती का अव्वल उसूल हम नहीं निभा पाते थे। पर उस उमर में कोई ख़ुद पर हँसना इनसे सीखे। और बहुत लोगों को पता नहीं होगा कि इनके गीतों का कलेक्शन किसी तलबग़ार से कम नहीं था और वो भी तब जब न इंटरनेट था और ना ही आई ट्यून्स! बैडमिंटन में अपने नेमसेक सुसी सुशान्ती जैसा ही प्रतिभावान।


अब आप ही बताइए इतने ज़िंदगी से भरे, क्रिड़ात्मक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मंडली में कोई कैसे सर्वरुपेण विकास से वंचित रह सकता है। फ़्रेंच में एक फ़्रेज़ है - ज्वा दा वीव। फ़्रांसीसियों की तो आदत है, लिखते कुछ हैं, पढ़ते कुछ, तो आपको जो उच्चारण और वर्तनी पता है आप वही पढ़ लें। सरल शब्दों में इसका अर्थ हुआ ज़िंदगी की ख़ुशी और ये टोली थी भरपूर ज्वा दा वीव से ओत प्रोत। वैसे ये हमारे टीचरों की भी सोच है कि वैसा बैच फिर कभी नहीं आया। शायद ज़माना ही अलग था जहॉं एक तरफ़ डीसिप्लिन के नाम पर हम पिटते भी थे, वहीं उस से बचने के लिए नये नये तरकीबें भी ईजाद करते थे। गुरुओं का वो प्रसाद तो शायद अब लुप्त ही हो गया है, जिसके लिए कबीर ने कहा था - 


गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि़ गढि़ काढ़ै खोट।


अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।


बेढंगे मिट्टी को जीवन के हर ठोकर के लिए तैयार अगर कुम्हार रुपी गुरु करते हैं तो ऐसे दोस्त भट्टी की गर्मी बाँट आपको चहुँओर से सुडौल बनाते हैं।


और हमें चकबस्त की बात से बिल्कुल ही इख़्तियार नहीं - जुहूर-ए-तरतीब से तो बस मिट्टी के माधो निकलेगें, असली ज़िंदादिली है अज़्जाओं का परेशान होना।


Tuesday, May 31, 2022

लता मंगेशकर

एक लम्बी तान बार-बार सुनाई तो दे रही थी लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है न कि गुनगुनाए बिना आपको वह गीत याद ही नहीं आती। उस दोपहर ऐसा ही हो रहा था। और चूँकि एक चौथाई दिमाग़ काम में लगा था हर बार उस गीत के मुखड़े तक पहुँचने से पहले शब्द जैसे फिसल से जा रहे थे। न काम ही हो पा रहा था और न ही गाने की पहचान! कुछ देर तक यही जद्दोजहद चलती रही और फिर गाना बंद हो गया। 


अब तो मन जैसे तिलमिला सा गया। लैपटॉप बंद कर उसी तान के बारे में सोचने लगे। आवाज़ तो लताजी की थी इसमें कोई संदेह नहीं था। कुछ दिन पहले उनका देहांत हुआ था तो शायद किसी ने उस दोपहर लताजी को स्वरांजलि देने की ठानी थी। जिस दिशा से आवाज़ आ रही थी वो इतनी ही दूरी पर थी कि धुन साफ-साफ आ रही थी पर बोल आसपास के शोर में घुल जा रहे थे। मन उस तान में उलझा हुआ ही था कि अगले गाने के कुछ शब्द बिलकुल स्पष्ट सुनाई दे गए।


“तेरी भी ऑंखों में ऑंसूओं की नमी तो नहीं…तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं।”


इन शब्दों ने तो जैसे एक सैलाब ही ला दिया। हम उन काबिलों की श्रेणी में आते हैं जो समझते थे कि लताजी एक धाक वाली गायिका थीं, जिन्होंने अपने प्रतिस्पर्धियों का करियर “बाय हुक ऑर क्रुक” ख़त्म करवाया था ताकि उनका एकछत्र राज चलता रहे। साथ ही हम ये भी मानते थे कि उनको नब्बे की शुरुआत बल्कि अस्सी के उत्तरार्ध में ही गाना छोड़ देना चाहिए था। पर जैसा भी हमारा आँकलन हो ये तो तथ्य है कि उनकी गायकी अलग ही दर्ज़े की थी।


कितनी बार ये गाना सुना होगा और लताजी के देहांत के बाद शायद पहली बार। चार दशकों की यादें चुभने लगी और यादों की जमघट से ये शब्द भी निकल कर आए - 

“तू खेले खेल कई, मेरा खिलौना है तू…”

उस वक़्त की, बिना समझे, बस मॉं की गोद और गाने की धुन याद है; लताजी इंट्रोड्यूस हुई थी मॉं की लोरियों से। लड़कपन तक आते आते, दिल तो पागल है का “अरे रे अरे ये क्या हुआ…” सुनकर लगता था कि कितनी बकवास आवाज़ है। लेकिन उसी दौरान “कभी ख़ुशी कभी ग़म” के लम्बे आलाप से जैसे मन विचलित हो जाता था। माहौल ही ऐसा था की बैंगलोर का अकेलापन और भी सूना हो जाता था। वही कहते हैं न कि कुछ चीज़ों का असली महत्व उमर होने पर ही समझ आता है। जैसे मुकेश की गायकी तभी समझ में आती है जब आप उमर की एक दहलीज़ पार कर जाते हैं।


अधेड़पन आते आते ऑंधी, अराधना, गाईड के गानों के नए मायने मिलते गए। इन दशकों में लताजी के गाने और भी नौस्तैलजिक लगने लगी। 

“कहॉं गईं शामें, मदभरी वो मेरे, मेरे वो दिन गए किधर”!

शब्दों में इत्र योगेश के थे तो रंगों के अलग-अलग शेड लताजी की तान ने भरे थे। गाने में शब्दों का महत्व तो है ही पर कैरियर तरंगों के बिना वो शब्द शायद वहाँ पहुँच ही नहीं पाएँ जहां से और जहां के लिए उन्हें लिखा गया है।


उस दोपहर की स्वरांजलि में कई बेहतरीन गाने बजे और सच में ऐसा लगा कि हिन्दी फ़िल्मों की आत्मा थीं लता मंगेशकर। मेरे लिए तो चार दशक थे लेकिन लताजी चार-पाँच  जेनेरेशन्स से गा रहीं थीं। शुरुआत की तान, जिससे ये यादों का सैलाब उठा था, अब भी खटक रही थी। हमने सोचा कि डी से ही पूछ लें क्योंकि उनका रेंज और गाने पहचानने की कला हमसे कई कदम आगे है। मसलन एक दिन हम गाने के बोल, धुन सब भूल गए थे और सिर्फ़ एक शब्द याद था - दरवाज़ा! इस शब्द से ही डी ने बता दिया कि गाना बाज़ार फ़िल्म का वो बेहतरीन नज़्म है - “करोगे याद तो”! और तभी हमारा माथा ठनका कि वो गाना तो बाज़ार फ़िल्म का ही था। उफ़! ख़ालिस उर्दू में लिखा हुआ ये गाना जिसके कुछेक शब्द और भाव तो अभी भी समझ में नहीं आते। उस वक़्त, थोड़े से बदलाव के साथ हम उसी फ़ीलिंग में गोते लगा रहे थे - “सुनाई दिए यूँ कि बेख़ुद किया, हमें आप से ही जुदा कर चले!”

Monday, May 23, 2022

बात

रुम की साईज़ थी करीब १०’X१२’ फीट, जिसमें आवाजाही के लिए एक दरवाज़ा था और बाईं और दाईं तरफ़ खिड़कियाँ थीं। बाईं खिड़की थोड़ी छोटी थी, जिसके साथ एक थ्री सीटर सोफा लगा था। एक किंग साईज़ बेड सामने वाली दीवार से सटा हुआ था और इन दोनों के बीच एक प्लास्टिक की कुर्सी किसी तरह फ़िट कर दी गई थी। बेड का एक सिरा दाएँ खिड़की तक था, जिससे बाहर के मिनी गार्डन की झलक मिलती थी।


इस रुम में करीब घंटे भर से एक महत्वपूर्ण बात चल रही थी। कितनी महत्वपूर्ण, ये आप उस रुम के लोग, उनकी उमर और उनके पोज़ से कयास लगा सकते हैं।

बेड पर तीन अधेड़ उमर वाले सर झुकाए बात सुनते और बीच-बीच में सर उठाकर कभी-कभी अपना तर्क दे रहे थे। उनमें से एक दीवार से टिककर लेटा हुआ था। बाकी दो अपने दोनों पैरों को मोड़ कर बैठे थे।


रुम के दो सीनियर सिटीज़न बहुत गम्भीरता से सबकी बात सुन रहे थे। एक बाईं तरफ़ वाली थ्री सीटर पर वज्रासन में बैठे थे और दूसरे प्राणायाम करते हुए उस सोफे और बेड के बीच वाले प्लास्टिक वाली कुर्सी पर। बाक़ी लोग जिन भावनारहित शब्दों का प्रयोग उस घर के लिए कर रहे थे वहॉं उनका बचपन बीता था। अब भले ही वो जर्जर हालत में हो पर उनके लिए तो वो घर भावनाओं और यादों का पोर्टल था।


गहमागहमी तब शुरू हुई जब दो और लोग वहाँ दाखिल हुए। उन महिला के लिए इज़्ज़त सबकी आँखों में दिख रहा था पर माहौल ऐसा बना हुआ था कि बस उनके लिए किसी तरह उस थ्री सीटर पर जगह बना दी गई । दूसरे आगन्तुक के लिए दरवाज़े के पास ही एक और प्लास्टिक की कुर्सी का इंतज़ाम कर दिया गया।


इन दोनों के उस रुम में आने से वैसे बातों में नई ऊर्जा आ गई थी। ऐसा लग रहा था कि इन्हें नए विस्तार और घर, खलिहान का ज़्यादा अनुभव था। और कुछ अल्पज्ञान, कुछ स्वाभिमान, कुछ ऐसी बातों का दुःख, सबने मिल-जुलकर दबी आग को जैसे हवा दे दी। ऐसा लगा कि मतभेद खुलकर सामने आने लगे। पर सीनियर सिटीज़नों की ख़ामोशी ने फिर से सब कुछ शांत कर दिया।


बीच बीच में एक और भागीदार का उस रुम में आना-जाना लगा हुआ था। यह आदमी बेड के बिल्कुल किनारे  बैठकर सबकी बात सुन रहा था और उसके पोज़ से उसकी दिलचस्पी झलक रही थी। ये आदमी है आपकी कहानी का सूत्रधार।


वैसे ऐसी बातों का एक बैठक में निष्कर्ष निकलना मुश्किल ही होता है। पर जहॉं पर ये बातें ठिठक सी गई वो था एक शब्द । वैसे तो सब को पता ही था कि कौन से मुद्दे पर बात हो रही है और सब चाहते थे कि सारी बातें बिना किसी खटास के हो जाए। बोलने वाले को भी उस शब्द का वजन बाद में ही समझ आया होगा। पर वाक बाण तो छूट चुका था और पहले से ही छलनी हो चुके हृदय के लिए एक वज्रपात सा कर गया वह शब्द- बँटवारा!

Tuesday, May 17, 2022

अभिमन्यु

महारथी अभिमन्यु के बारे में कई कहानियाँ लिखीं गई हैं।  चक्रव्यूह तोड़ने का अधूरा ज्ञान होते हुए भी उसने अंदर घुसने का दुस्साहस किया और वहीं लड़ते हुए वीरगति पा गया।  थोड़ा इंटरनेट और कुछ बी आर चोपड़ा वाली महाभारत से इस कहानी के कुछ और व्याख्यान मिलते हैं।

कहानी तो सबको पता ही है कि कैसे अर्जुन अपनी गर्भवती पत्नी सुभद्रा को व्यूह रचना के बारे में बता रहे थे। कुछ तो अर्जुन का ही दोष रहा होगा कि वो सुभद्रा को सुलाने में सफल होते हैं। लेकिन सुभद्रा के सो जाने के कारण उनके गर्भ में अभिमन्यु व्यूह से बाहर निकलना नहीं सुन पाता है। इन सबके बावजूद वो अपने राजा को बचाने के लिए सर्वोच्च बलिदान देते हुए इतिहास (या मिथक) के पन्नों में अमर हो जाता है। आजकल शायद ऐसे लोगों को बेवक़ूफ़ करार कर दिया जाए - कि भैया बाहर निकलने आता नहीं और कूद पड़े महासमर में।

ये तो हुआ लेजेंड और इस लेजेंड का बचपन से हम पर गहरा असर हुआ था - कि अधूरे ज्ञान और बिना सोचे उसका प्रयोग का हश्र, मौत ही है। हालाँकि अभिमन्यु जानता था कि उसकी मौत निश्चित है लेकिन विकल्प तो उससे भी भयावह था। फिर कुछ कर्म, मर्यादा और कर्तव्य के आडम्बर से यह निर्णय महाभारत के सर्वोच्च घटनाओं में गिनाया जाने लगा।

हॉं, तो इस कहानी का हमारे जीवन पर ऐसा असर है कि जब कभी ऐसे अधूरे ज्ञान का विषय हमारे सम्मुख आ खड़ा होता है हम इस कहानी और उसके भयानक परिणाम में उलझ से जाते हैं। उस पर से हाल ही में जब गैरी कैस्परॉव की किताब “हाउ लाइफ़ इमिटेट्स चेस” में एक उदाहरण पढ़ा तो जैसे हमारा विश्वास और भी दूना हो गया। उन्होंने लिखा है कि मान लें कि कोई ऐसी किताब से शतरंज सीखता है जिसमें मोहरों की चाल और खेल के नियम का सारा विवरण हो पर उसमें खेल का उद्देश्य और उसका अन्त, वाले पन्ने फटे हुए हों। तब कोई बिना उद्देश्य के कैसे खेल का आनंद उठा पाएगा। शायद बहुत जल्द उसकी शतरंज से रुचि भी खत्म हो जाएगी और हो सकता है, इसी पर आधारित उसके भविष्य में कुछ नया सीखने का उत्साह, लक्ष्य भेदने की संतुष्टि सब खत्म हो जाए। किताब में ऐसी समविचारी बातें आपकी परिकल्पना को दृढ़ विश्वास में बदल देती है।

और इस विश्वास से ओत प्रोत होकर एक दिन हम एम के बिखरे हुए एल्फ़ाबेट के कार्डों को समेट रहे थे। अमूमन ये रोज़ का ही काम है क्योंकि बच्चे खिलौने की महत्ता तभी समझते हैं जब वो उन्हें नहीं मिलता है। ख़ैर अगली बार कार्ड का डिमांड और फिर न मिलने पर रोना-धोना न हो, उस उद्देश्य से कार्ड सहेज रहे थे। जब सारे कार्ड उठ गए तो हमने देखा कि वाई वाला कार्ड ग़ायब है।

अभी कल ही तो ये कार्ड का डेक लाए थे इतनी जल्दी ग़ायब भी हो गया! पूरा घर छान मारे तब भी वाई नहीं मिला। फिर कार्ड के डेक को खंगाला तो हमने देखा की ज़ेड के दो कार्ड हैं। 

अब अगर आपने उपरिलिखित लेजेंड और हमारी विश्वास की बढ़ती डिगरी को पहचान लिया है तो आप समझ ही गए होंगे कि हमारा दिमाग़ किस उधेड़बुन में फंस गया होगा। हालाँकि अंग्रेज़ी में वाई से उतने भारी भरकम शब्द होते नहीं हैं लेकिन संयुक्ताक्षर बनाने में वाई का बड़ा योगदान है। और यहॉं तो एम के नाम का दूसरा अक्षर ही वाई है!

फिर क्या! हमने वाई का ज्ञान को चक्रव्यूह भेदने सरीखा मान कर अंदर बाहर, उपर नीचे, दाएँ-बाएँ, ईशान-अग्नि सभी दिशाओं से भेदने की सीख एम को दे डाली। इसका असर दिखा और कम से कम तीन साल के होते होते एम अपना नाम अच्छे से लिख पाने लगी। 

इसके बाद, हम पर जैसे एक भूत सवार हो गया। जो भी किताब हाथ लगता उसमें सबसे पहले हम ये देखते कि कहीं कोई पन्ना तो ग़ायब नहीं है। यह सिलसिला शायद जीवन भर मुझे अपने पाश में बांधे रहता अगर हमारी सुभद्रा हमें ये कहकर न रोकती - “क्यों चक्रव्यूह ढूँढते फिरते हो, कौन सा तुम अर्जुन हो जो ये अभिमन्यु निकलेगी?”

Tuesday, March 22, 2022

गुटबाज़ी

हर रोज़ गुट नया बनता रहता
खेला होता आर-पार
माला जपो सोशल मीडिया पर
घड़ी-घड़ी पाओ नया अत्याचार!

हर रोज़ नया नया रंग
कभी केसरिया
कभी लाल
गोता लगाकर सने रहो
लाओ नया भूचाल!


एक रोज़ रंग फ़क़ीरी का

एक रोज़ बादशाही अमीरी का

हर जिरह जंग जैसे

मसला घरेलू और करीबी का।


वो खेल का मैदान हो

या सियासत का आखेट

दो-दो हाथ और कोई करता

खाते हैं हम फरेब!


रोज़ बँट कर

गुट लेना है चुन

काम काज सब तख़्ता पर रखकर

माथा में भरो उधेड़बुन!


हो किसी की भी समस्या

भोजन सा जाए परोसा

लड़ाई-बहस के बाद भी

बने रहो मुँहझौंसा!


रहीमन कहकर गए

कर का मनका दे डारी

फिरा जो  मनका

तो पीछे पड़े कोतवारी!



Wednesday, March 09, 2022

हाथ की सफ़ाई

सर्दियों की कुछ यादें फिर से वापस लौट आईं। एक लम्बू और दूसरा अपेक्षाकृत टिंगु की जोड़ी ने दो दशक पहले हमें बहुत आतंकित कर रखा था। इन दो कदों के इर्द-गिर्द पूरी टीम बनती थी और उस टीम से ज़्यादा अक्खड़ था उनका लीडर। हर बार इसी आस से सुबह-सुबह टी वी खोलते थे कि उन दोनों का तोड़ किसी ने तो ज़रूर ढूँढ लिया होगा।

लम्बू बिलकुल उस टीचर की तरह था जो रेखाओं और बिंदुओं के बीच पूरी ज़िंदगी बिता देते हैं और टिंगु ऐसा जालसाज़ की बातों बातों में आपकी सबसे महत्वपूर्ण चीज़ हर ले। ३-० जैसी स्कोर लाइन तो जैसे नियम बन गई थी। और उस धुरंधर टीम का वो अक्खड़ कप्तान तो जैसे एहसान उतारने के लिए भी नहीं मुस्कुराए। वो टीम जीतने के बाद मुस्कान और सीधे अधरों के बीच वाली स्मर्क का अर्थ समझाती थी। एकाध हीरो कभी कभार दूसरी तरफ से भी होते थे लेकिन सारी हीरोगिरी ऐसे कलाकारों के सामने बौनी हो जाती थी।

दिसम्बर के दिन बहुत सुनहरे होते हैं और उस वक्त वहाँ सुनते हैं बहुत गर्मी होती है। तो बस छुट्टियों के मज़े लेने के लिए वो ऐसी टीम्स को बुला लेते थे और बदहाल कर वापस भेज देते थे।क्रिसमस के बाद बॉक्सिंग डे की विशिष्टता उन सीरीज़ में पता चली थी। हमारे लिए भी वो एक दो श्रृंखलाओं ने क्रिसमस और नए साल को शोकपूर्ण बना दिया था। अब तक तो आप पहचान ही गए होंगे की बात ऑस्ट्रेलियाई धुरंधरों की हो रही है जिन्होंने लगातार १५-१६ टेस्ट जीतने का रिकॉर्ड बनाया था।

पिछले दिनों उस इनविन्सिबल टीम का सबसे बड़ा महानायक अनन्त में विलुप्त हो गया। शेन वार्न! महानतम लेग स्पिनर! और भले ही वो दुश्मन ख़ेमे के हों पर फैन फॉलॉविंग इतनी ज़बरदस्त कि उस वक्त हर स्पिनर वार्न बनना चाहता था। कलाई को घुमाव देकर पैरों के पीछे से बोल्ड करने के प्रयास में जाने कितनों ने कलाईयाँ मरोड़ी होंगी।

उन दिनों क्रिकेट में एग्रेसन की बहुत बात होती थी; लेकिन हमारी टीम में जैसे सारे खिलाड़ी मर्यादा पुरुषोत्तम ही थे। कोई कितना भी छेड़े हमारे खिलाड़ी बस रहते थे वही ढाक के तीन पात। और कोई भी जमने लगता या रन बनाना शुरु ही करता तो स्टीव वॉ अपने सबसे विश्वस्त सिपाहसलार को गेंद थमा देते। फिर शुरु होती फिरकी की धुन पर द्रुत ताल - कभी पैरों से ब्लॉक, कभी गेंद को अंत तक देखकर छोड़ने की क़वायद! हम तो यहॉं तक बात करने लगे थे कि डॉउन अन्डर श्रृंखला को अमान्य घोषित कर देना चाहिए। कई दिग्गज टीम्स वहाँ जाकर धराशायी, निराश, हताश लौटी थी। 

हताश आदमी कई मनोदशा से गुजरता है - गुस्सा, अस्वीकृति (डिनायल), उदासीनता (इनडीफरेन्स) और फिर मौन। हम शायद आख़िरी लेवल में थे इसलिए वार्न की चमत्कारी हाथ की सफ़ाई को बस मूक होकर देखते थे। कई सालों बाद जब हार के ज़ख़्म भरे तब वार्न की महानता का ज्ञान हुआ।

एस सी जी, एम सी जी, बी सी जी - नहीं ये नाम नहीं था शायद! पर क्या फ़र्क़ पड़ता है कोई भी ग्राउंड हो ऑस्ट्रेलियाई टीम से मैच खेलने के बाद क्या सी और क्या जी! इतने बड़े बड़े मैदान, कि छक्का मारने के लिए स्टेरॉयड्स का सेवन अत्यावश्यक हो जाए। हालिया वर्षों में जब क्रिकेट और क्रिकेटर दोनों ही भीमकाय हो गए हैं तब जाकर एकाध छक्के लगने शुरु हुए हैं। एस सी जी में वार्न की फिरकीपर हमारी टीम कुछ ज्यादा ही थिरकती थी। पर हॉं, वही शेन वार्न का एशियाई रिकॉर्ड उनके बाकी रिकॉर्ड से थोड़ा उन्नीस प्रतीत होता है। इसका मुख्य कारण है क्रिकेट लेगसी में वो सचिन और वार्न वाली स्वर्णिम रिवैलरी! 

शेन वार्न - जादूगर, श्रेष्ठतम स्पिनर, और जाने कितने नामों से उन्हें जाना जाता रहा है। उनके पलायन की ख़बर इतनी अचानक थी कि पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ; फिर जैसे यादों का सैलाब सा ही आ गया। लोगों ने उनके विकेट्स के वीडियो फार्वर्ड करने शुरु किए तो लगा जैसे वो सारे मैच अभी कुछ दिन पहले ही तो देखे थे। वार्न ख़ुद कुछ घंटे पहले तक ट्वीटर पर सक्रिय थे और फिर अचानक से क्षणभंगुर जीवन को सत्यापित करती देखिये कैसी डिवाइन गुगली! उनके हुनर के तो हम सभी कायल थे लेकिन मेरी यादों में वो दिसम्बर की ठंड के आतंकी ही रहेंगे।

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...