Tuesday, December 31, 2019

स्वाद

ज़िन्दगी में स्वाद या यूँ कहें कि ज़िन्दगी का स्वाद ३५ के बाद ही आता है। उससे पहले करेले को चाशनी में भी क्यों न डूबो कर खाएँ, रहती है वो दुनिया की सबसे कड़वी चीज ही। मिर्ची (हरी हो या लाल) का तीखापन आँखों में आँसू के बांध और यदा कदा शिष्टाचार की हदें भी तोड़ जाता था। और फिर नमक तेल रोटी तो हम जैसे ज़मींदार के नाती कैसे खा सकते थे।

वैसे तो ३५ के बाद भी कड़वाहट, तीखापन या अकड़, कम नहीं होती पर ज़िन्दगी की एक परत ज़बान पर चढ़ जाने पर स्वाद के नए आयाम मिलते हैं।हॉं, यौवनावस्था में भी जब घर छूट जाता है तो घर के खाने का स्वाद समझ आता है।आप कॉलेज की छुट्टी में घर आकर कुछ भी खा लेते हैं और अपनी माँ को रुंधा गला और नम ऑंखें दे जाते हैं।लेकिन ये भी शायद आप स्वाद के लिए नहीं वरन् घर छूट जाने के बाद बाज़ारू भोजन की लत छुड़ाने के लिए करते हैं। फिर इसी दौरान आपको शायद सबसे पहली बार ज्ञात होता है कि आपके शरीर का सबसे मुख्य अंग होता है आपकी जीव्हा! 

और जीव्हा की कहानियॉं भी उतनी ही विरल होती हैं - जैसे दो अनजान व्यक्ति कभी-कभी स्वाद को लेकर आत्मीय संबंध जोड़ लेते हैं, मसलन ये सुनिए:

पहला: कहाँ से हैं आप?
दूसरा: बनारस से।
पहला: ओह! क्या बात है! वो कचौड़ी गली में मिश्रा जी का खुरचन अभी भी मिलता है क्या?
दूसरा: हाँ हाँ! अभी क्या, कभी भी जाइए मिलता है! 
पहला: बहत्तर में सबसे पहले गये थे वहाँ! अकस्मात ही मिल गई थी उनकी दुकान! नैनी से डेली पैसेंजर जब थे तब ख़ूब मज़े लिए हैं मिश्रा जी के खुरचन का! अब कहाँ वो स्वाद!
दूसरा: नहीं नहीं स्वाद तो अभी भी वही है बस भाव सोने का हो गया है। कभी बनारस आइए तो बताइए, हमें तो मिश्रा जी के यहाँ जाने का बहाना चाहिए।

हम भी अब कुछ सालों से पैंतीस के ऊपर हैं और जीव्हा के साथ साथ एकाध स्वाद से पहचानी वाली जगहों पर जिरह करने के काबिल हैं। हमारी कर्मभूमि में जालाहल्ली के बंगाली मिष्ठान भंडार से लेकर गांधीबाज़ार की स्वादिष्ट गलियाँ हों या संजय ढाबा का चिलीचिकन, हम ‘जी पी एस’ लोकेशन और स्वाद दोनों की जानकारी रखते हैं। और जन्मभूमि तो हमारी वैसे ही स्वाद के कम से कम दो आइटम के लिए जीयो-टैग्ड है - कतरनी चावल और जर्दालु आम। उस पर जिरह हो या दो-दो हाथ हम सदा तैयार हैं।

अब मसूदन के बालूशाही को ही ले लीजिए - भागलपुर में तो खूब तूती बोलती है इनके मिष्ठानों की। पर हमें हमारी नानी सास से पता चला कि जब वो भागलपुर आईं थीं तो उस दुकान की कायल हो गई थीं।तो बात लोकल नहीं रही है लगता है। बचपन में चखा तो ज़रूर था मसूदन के मिष्ठानों को और चूँकि हमारा ननीहाल बिल्कुल पास में था तो हर पर्व त्यौहार, छट्टी, जनेऊ, शादी सबमें वहीं का मिष्ठान खाया था। पर बात वही कि पैंतीस के बाद हमने उधर का रुख़ नहीं किया था।

इस बार घर गए तो सबसे पहले प्लान बनाया मसूदन के मिष्ठान भंडार का। मसूदन अपभ्रंश है मधुसूदन का ये तो हम समझ गए थे लेकिन वहाँ पहुँच कर पता चला कि उनको गुज़रे कम से कम बीस साल हो गए हैं। और यही नहीं उनके पौत्रों ने दुकान का बँटवारा कर लिया है। अब समस्या विषम हो गई कि आख़िर किस पौत्र ने अपने दादाजी के गुणों का अनुसरण किया है। ख़ैर मन ही मन मसूदन की आत्मा का ध्यान करते हुए (उनकी शक्ल तो वैसे भी हमने नहीं देखी थी) हमने एक दुकान से ही बालूशाही और घेभर दोनों उठाया।और जीव्हा पर रखते ही जैसे तीस साल पहले पहुँच गए। शनैः-शनैः जैसे घेभर मुँह में घुलता जा रहा था ये बात भी स्पष्ट हो रही थी कि लोग स्वाद को लेकर इतने भावुक क्यों हो जाते हैं।

हमने जब से जीव्हा की महत्ता समझी है तब से हर पकवान को स्वाद लेकर खाना सीख रहे हैं - फिर वो चाहे बासुकी नाथ का कचरी मुड़्ही हो; हरी मिर्च के साथ, चाहे पन्तुआ हो, खीर कदम हो या खीर मोहन। हम हमारी जीव्हा को सारे स्वाद फिर से याद दिला देना चाहते है। फिर क्या पता किसकी काली ज़बान चल जाए और परहेज़ में बाक़ी ज़िंदगी निकालनी पड़े। और हाँ आजकल उसी जीव्हा का मनपसंद खाना है नमक तेल रोटी और उसके उपर पकाया हुआ लाल मिर्च, अक्षुण्ण ज़मींदारी अकड़ के साथ।

Thursday, December 26, 2019

पीकू का झरोखा

सुबह का है नज़ारापीकू
देखो कितना प्यारा
वो बैग लटका कर
कैसे मुन्नी दौड़ लगाए
उधर घसीट कर पैरों को
मुन्ने की ईप्सा है कि
बस छूट जाए।

सेहत की आस में
देखो कोई द्रुत कदम बढ़ाए,
कोई सिर्फ कपड़ों की आड़ में
जैसे कपड़ों को ही टहलाए।

दिनचर्या की दौड़ भाग से दूर 
कोई चिंतन में खो जाए,
खिलखिलाती धूप की आस में
देखो कबूतरकुत्ते भी आए।

दुनिया का रंग पीकू
है देखो कितना अनोखा
तुम्हें देखना-सीखना
अभी है बहुत,
ये जो है तुमने देखा
बस है एक झलकएक झरोखा।

Monday, December 16, 2019

Flemingo

Fleming’s left hand rule (FLHR), with that strange concoction of the three fingers of your - what else - left hand, was how we were introduced to one of the advanced concepts of physics. For some it was just a gesticulation, with middle finger, the prominent one, ridiculing their yet to develop nascent brain. To add to the misery of those brains, there was a right hand rule too!

For me it was fun and a kind of ego massager - where some of the brilliant minds of my class failed to understand, I could effortlessly twist my fingers to show which way would the motion be, as predicted by the thumb! 

Now electromagnetism isn’t a simple phenomenon, especially if you have to imagine a multi-dimensional wave, one being orthogonal to the other. Fleming’s hand rules didn’t even involve the twist-your-brain-into-knots mathematics, which I later found out was for evolved brains. Nevertheless, these evolved brains failed to comprehend the hand rules - probably the only reason I can think of is they detested the idea that a concept with physics and mathematics, entwined, involved gestures from Kathakali!

This story goes back a few decades when I was a young student of X ‘B’. Tansen and I were thick as thieves then, with Naresh completing the triumvirate. Tansen was a natural all-rounder. His Mark Waughish cover drives were as famous as his effortless solutions to really complicated problems (academics or otherwise) or his charming smile. He also turned out to be the lyrical bahati-hawa-sa Phunsukh Wangdu character (immortalised by Amir Khan from ‘3 idiots’), when my friends and I too, lost track of where Tansen was after being last sighted at Infy, Bangalore for a brief period of time. He has suddenly reappeared after quite a long hiatus, thanks to WhatsApp.

The three musketeers (we didn’t have a name then) would meet infrequently at each other’s homes in the evenings and more frequently, if there was an impending exam. It was in one of these group study sessions, while discussing FLHR, I had a feeling of, what psychologists have termed, Superiority Complex. This was because my other two very talented friends had some trouble understanding FLHR, while I was giggling and solving problems with ease. The evening remains one of my cherished memories for it was on very rare occasions that I had an upper hand, with these guys in tow.

Just a few years down the line, however, there was a role reversal. We had graduated from being adolescents to young adults, by clearing what everyone called the-most-important-exam of our life and had got admission in XIth standard of the same school. Some of the dynamics changed - girls joined us (we were an all boys’ school till Xth standard) and all of a sudden, Maths and Physics achieved gargantuan proportions, which as described earlier was only for evolved minds. Add a heady mix of hormonal surge and what you have is a life in dizzy, where everything seemed to be travelling at breakneck speed. There was so much distraction that you had to constantly struggle to stay afloat, while the evolved ones were racing ahead!

Concepts of Physics by HC Verma, is a book revered by many - it is a concise book, explains the concepts (true to its name) in a no-nonsense cryptic text and then quickly moves on to some really good problems on the just explained concepts. These problems don’t have a solution manual and only IE Irodov surpasses the quality of problems in that book. 

I am not sure if Tansen had that feeling of Superiority Complex on that role-reversal day. However, it was a realisation for me that he is one of those evolved ones, who at that time was just enjoying his swim and soon will be among the winners! The problem that we were discussing was from the conservation of energy chapter - where a man is falling from a building with a suitcase in his hand and to avoid the terra-firma, should throw his suitcase at a certain speed horizontally. I wonder how people come up with such problems where you get rid of your worldly possessions, viz., suitcase, to save your life! Only trick here was you had to consider conservation of momentum in horizontal reference frame, with transformation of energy and the corresponding projectile motion which would help the man to fall into the swimming pool. Yes, even I didn’t get that and yes I still haven’t got that, while Tansen effortlessly solved it, matching the solution to the last decimal point!




They say it takes just a needle tip to deflate a baloon, this holds true for ego too. This HC Verma problem was that needle tip for me. My ego wasn’t just deflated but it was shattered to pieces. This was the epiphany that people wait for their whole lives. An inflection point in your life after which you ought to take a different path - be it your career or life decisions. Me? I didn’t change a thing and continued toiling to get admitted to an engineering college. The outcome is an engineer who knows that he is not as efficient problem solver as a Tansen, for instance. But then that is how life is and all we need is some lemons!

ठाकुरजी

ठाकुरजी हमारे कुनबे के एक तरह से कॉनसिलियरी हुए। अगर आपने गॉडफ़ादर पढ़ी या देखी है तो आप समझ ही गए होंगे और अगर नहीं तो सुनिए। हमारे पिताजी अगर गॉडफ़ादर हुए तो ठाकुरजी यथाशक्ति उनके हुक्म की तामील करने वाले हुए और यदा कदा अपना ज्ञान बांचने वाले भी। कद होगी उनकी कुछ साढ़े चार फीट, रंग सॉंवला, मितभाषी और हमेशा फॉर्मल्स में। वो कहते हैं न - ही मीन्स बिज़नेस। 
उनकी पहली बहाली वैसे ड्राइवर के रुप में हुई थी। पर धीरे धीरे उनकी कार्यकुशलता और प्रचुर मात्रा में जी हुजूरी उन्हें वहाँ से उठाकर हमारे “ओसरा” तक ले आई थी। बड़े कार्यों को सिद्ध करने के लिए उनका आवाहन किया जाता था। जैसे गैस लीक का अंदेशा हो, ताला तोड़ना हो, प्लंबिंग का काम या समरसेबुल की जानकारी। ठाकुरजी इन कार्यों में पारंगत तो नहीं थे पर जैक ऑफ ऑल होने के कारण कुछ न कुछ जुगाड़ कर ही लेते थे।
अच्छा आप समरसेबुल में ही अटके रह गए क्या - वही बोरिंग जो जल स्तर नीचे होने के कारण आजकल हर घर में लगाया जा रहा है।गुगल मत करिए, ये लोकल लिंगो है नहीं मिलेगा; लोकल लिंगो में ही - गुगल फेल है। अच्छा चलिये अपनी तृष्णा का निवारण कर लीजिए और सब-मर्सिबल गुगल कर लीजिए। 
हॉं तो ये सारा ज्ञान भी ठाकुरजी या तो रखते थे या ऑउटसोर्स करवाते थे।
एक बार दोस्त की शादी में दरभंगा जाना था और हम बैंगलोर से ये मन बना कर चले थे कि घर से अकेले ऑल्टो में जाएँगे। रोड ट्रिप भी हो जाएगा और चूँकि उस वक्त सुशासन बाबू के बारे में बहुत सुन रहे थे तो एक झलक देख भी लेंगे। हाल ही में गाड़ी चलाना सीखे थे(ठाकुरजी से ही) तो जोश चरम पर था। घर पहुँचकर योजना में थोड़ी फेर बदल हो गई और ठाकुरजी को हमारे साथ लगा दिया गया कि कम से कम एक आदमी साथ में रहेगा।
अब ठाकुरजी हुए नंगे पॉंव ड्राइव करने वाले, योजनाबद्ध चालक जो चाय के लिए भी वहीं रूकेंगे जहॉं का मन उन्होंने सफर से पहले बना लिया है। ख़ैर सवारी निकली, तय हुआ था कि विक्रमशिला पुल को पार कर नौगच्छिया होते हुए दरभंगा पहुँच जाएंगे। अब संयोग कहिए या ठाकुरजी का “जतरा” कहिए, विक्रमशिला सेतू पिछले चौबीस घंटे से बन्द था। कारण था एक ट्रक जो पुल के बीचों बीच बन्द पड़ गया था, तो इधर वाले इधर और उधर वाले उधर ही फंसे पड़े थे।
हमने गाड़ी वापस मोड़ी और चल पड़े मुंगेर की तरफ कि मोकामा-समस्तीपुर वाले पुल से होकर दरभंगा पहुंच जाएंगे। 

गुगल मैप्स उस वक्त नवजात था तो वो भी नहीं बता पाया कि उस पुल की मरम्मत चल रही है; पहुँचे तो ये बात पता चली। पर अब जाना तो था ही तो हमने मन बनाया कि गॉंधी सेतू से हाजीपुर, मुज़फ़्फ़रपुर होते हुए गंतव्य पहुँचेंगे। इतना सुनना था कि ठाकुरजी का सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने दागा अपना डॉयलॉग - “धौ! ओझरा दिए आप!”। अब अक्षरशः इसका अर्थ है कि आपने उलझा दिया पर इसके पीछे जो जीवन दर्शन है वो ठाकुरजी के बहुत सालों के अनुभव का निचोड़ है। कई दिनों के मंथन के बात हमें पता चला कि ठाकुरजी ने हमें लक्ष्य, ध्येय, प्राप्ति मार्ग के बनिस्बत गंतव्य की महत्ता - सबका सार उन चार शब्दों में बता दिया था।
उसके बाद उस पूरे सफर में बहुधा वो मौनी बाबा ही बने रहे। हमें भी लगा कि हमने जैसे उनके ब्रह्माण्ड में बहुत बड़ा कटाव कर दिया है सो हमने और कोई दुस्साहस नहीं दिखाया और चुपचाप सीधे रस्ते दरभंगा पहुंच गए। 
वैसे पहुँचने में काफ़ी वक्त तो हो ही गया था पर हम फेरे होने से ठीक पहले पहुँच गए तो लगा कि कार्य सिद्ध हुआ। और उसके बाद जैसे ठाकुरजी को पल भर भी चैन नहीं। उनका मन तो था कि तुरंत ही वापस हों लें, फिर भी किसी तरह वो उस रात (वैसे भी पौ फटने में ३-४घंटे ही बचे थे) रुकने को तैयार हो गए ।दूसरे दिन ब्रह्म मुहूर्त में ही हम निकल पड़े। लौटते वक्त बरौनी से पूर्णिया, नवगच्छिया होते हुए घर पहुँच गए। हालाँकि बरौनी के पास एक ट्रक का जत्था मिला था लेकिन उसके बाद कुछ भी अप्रिय नहीं  हुआ और हम बड़े आराम से घर पहुँच गए। लौटने का सफर इतना नीरस था कि ठाकुरजी ने ही हमें बीच में कहीं रुकने को कहा कि चाय पी लेते हैं।
वैसे पूरे सफर में मुज़फ़्फ़रपुर-दरभंगा ही ऐसा दौर था जहॉं सुशासन बाबू का चमत्कार दिखा। चार लेन के बेहतरीन रास्ते ने मन मोह लिया और किसी बड़े हाईवे सी फ़ीलिंग भी हुई।

आजकल ठाकुरजी के बड़े सुपुत्र विक्रम ने कॉनसिलियरी का पदभार सम्भाला है। फुटकर कामों से उन्होंने अपनी कार्यकुशलता दिखानी शुरु की है और अब तो पूरा घर भी उनके देखरेख में छोड़ा जाने लगा है। 
घर छूट जाए तो हर छोटी बात को बार बार संजोने का मन करता है।और हर बार एक टीस होती है जब वापस लौटना होता है। हालाँकि यह प्रबन्ध फूलप्रूफ तो बिलकुल भी नहीं पर किसी तरह मन को मना लेते हैं कि हमारी अनुपस्थिति में कोई तो है जो माँ या पिताजी के आवाज़ देने पर दौड़ जाता है।

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...