Friday, March 31, 2023

आप कितने सोशल हैं

 “ओम शांति!”, टाइप करके करते ही मन ने दुत्कारा। दुःख तो था पर मैसेज लिखने पर लगा जैसे बहुत ही सतही दुःख हो। एक करीबी का देहान्त हो गया था और व्हाट्सऐप फ़ैमिली ग्रुप पर किसी ने यह दुःखद समाचार डाला था। ऐसी घटनाओं पर हम वैसे तो मैसेज के माध्यम से प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते। लगता है जैसे कोई फॉर्मैलिटी निभा रहे हों - और ख़ुद पढ़कर देखिए लगता है जैसे अपने मन में ही बोलकर रह गए।

यूँ तो सोशल मीडिया जैसे ट्विटर या फ़ेसबुक/इंस्टा हो, सब पर यह बहुत आम सी बात हो गई है। किसी का देहावसान हो गया, उसके जान-पहचान वाले ने मैसेज डाला या फोटो लगाई और लोग लग गए रेस्ट इन पीस की कामना करने। कितने तो बस आराम कुर्सी पर टाँग पसारे-पसारे ही ओम शांति चिपका देते हैं। न कोई भाव, न दुःख, बस इस आस में कि अपनी सांत्वना सबको दिखाई दे जाए।इससे अच्छा आप पहुँच कर कुछ मदद कर दें या कॉल कर के बात ही कर लें। इन्हीं कारणों से हम ऐसे मैसेजों पर टिप्पणी नहीं करते हैं।

व्हाट्सऐप तो जैसे सारे विरोधाभास का महाकुंभ है। जिसमें आप तरह-तरह के ग्रुप के मेंबर होते है - फ़ैमिली ग्रुप, बिग फ़ैमिली ग्रुप, अपार्टमेंट ग्रुप, स्कूल के दोस्तों का ग्रुप, वन्डरलस्ट ग्रुप। कभी-कभी तो एक ही दिन अलग-अलग ग्रुप पर एक साथ चार तरह के मैसेज आ जाते हैं - ब्लेस्ड विद ए बेबी गर्ल!, फुटबॉल खेल रहे थे पैर टूट गया, चुन्नु भैया के पापा नहीं रहे, कल रात की पार्टी ज़बरदस्त थी, लेट्स डू इट अगेन! (कुछ फ़ोटोज़ के साथ)।

अब ऐसे मेसेजों को एक साथ पढ़ने वाले की भावनाओं का ज्वार भाटा और मानसिक उथल-पुथल सोचिए कैसा होगा। शायद मानव मन इतनी सारी भावनाओं को इतनी जल्दी, इतने कम समय में प्रॉसेस भी न कर पाए। तिस पर से सारे मेसेजों के जवाब भी तो देने होते हैं।इसलिए जैसे हमारे जवाब एकदम मेकैनिकल हो गए हैं - (क्रमशः) ढेरों बधाइयाँ, गेट वेल सून, ओम शांति, बू-या #FTW! यही कारण है हमारे अधोपतन का। 

जिधर नज़र घुमाइए लोग सर झुकाए मगन रहते हैं। मन में ही सवाल करते हैं और मन में ही जवाब; मन में ही हसते हैं, मन में ही घृणा, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, आश्चर्य, शांति हो या भक्ति - सर झुकाए मन में ही नौ रसों का पान कर लेते हैं। कहते हैं रसों के अनुभव से इन्द्रियाँ सजग रहती हैं, मन कल्पना के उड़ान ले पाता है। लेकिन ये सोशल मीडिया जेनेरेशन तो बिल्कुल इंद्रजीत हो गया है जैसे या शायद एकदम भावनाशून्य!

वैसे एकाध अच्छाइयाँ भी हैं इस सोशल मीडिया की - जैसे कि ख़बर, कुशल क्षेम द्रुत गति से पहुँच जाते हैं। हाँ, बुरी ख़बर और अफ़वाह भी उसी गति से विचरती हैं। जिनसे कई दिनों से मुलाक़ात नहीं हुई उनसे वीडियो कॉल से बातचीत हो जाती है। यह बात अलग है कि अब ऐसे कॉल में आप टेलीफोन वाले सोच कुछ, कर कुछ-बोल कुछ वाले वार्तालाप नहीं कर सकते। नई बातें पता चलती हैं, शौक को पैकेज कर प्रस्तुत करने के लिए प्लैटफ़ॉर्म मिला है। पर ये मंतर जाप वाले क्रम में जो लोग स्क्रीन सरकाए जाते हैं उनसे हमको ख़ासा चिढ़ है। पहले के ज़माने में जब टेलीग्राम के बिना पढ़े ही सिर्फ़ उसके आने का सुनकर, जिस तरह का रुदाली क्रंदन होता था अब व्हाट्सऐप पर बुरी से बुरी ख़बर बस एक टीस के साथ मन में ही पचा ली जाती है। ऐसी दबी हुई कितनी भावनाएँ जाने कहाँ, कब, कैसे निकलती हैं!

इतना कुछ सोचने के बाद हमसे वो ओम शांति वाला मेसेज नहीं भेजा गया। हमने जल्दी जल्दी उसे डिलिट किया और चल पड़े सामाजिक औपचारिकता का निर्वाह करने - जी हाँ प्रत्यक्ष भागीदारी न कि वो आराम कुर्सी पर टांग पसारे ओम शांति लिख सोशल मीडिया वाली औपचारिकता।

बेकर्स डज़न

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