Saturday, January 29, 2011

इख़्तियार

रु-ब-रु होकर उनसे हुई बातें दो-चार
शब्द कुछ फंसे रह गए
कुछ बुनने मे हो गए बेकार ।
कंठ ने साथ न दिया या शब्द थे हैरान
बेखुद से, ठगे से रह गए,
भीढ़ हुई धुआं और दिमाग वीरान ।

यूँ ऐसे न प्रकट हुआ करो
हमारी नहीं तो धडकनों का ही ख्याल करो ;
तराशने का वक्त दो,
या गिनकर लम्हे भेज दो
खुशबू उनमे पीरो लूँगा,
कुछ नहीं तो लम्हे ही संजो लूँगा ।

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...