Tuesday, April 04, 2023

घर या होम?

माँ की आवाज़ में थरथराहट थी। दो तीन शब्द बोलते ही खाँसने लगी तो फिर फ़ोन काटना पड़ा। हम एकाध घंटे ऐसे ही निःशब्द बैठे रहे - पिछले दो बार से बात कर ऐसा अनुभव हुआ कि माँ की कुछ ज़्यादा ही तबियत ख़राब है। 

माँओं का भी स्वभाव कैसा होता है - बड़ी से बड़ी बात नहीं बोलतीं, सहजता से छुपा लेती हैं। और इस बार जब उनके मुँह से सुना कि तबियत बहुत ख़राब है तो मन जैसे एक जगह रुक ही नहीं पा रहा था। माँ-बेटे का रिश्ता, जैसे बाप-बेटी का रिश्ता, कितना विचित्र होता है। लड़ जाएँ तो जैसे कट्टर दुश्मन और फिर पल में ही जैसे सब ठीक - कोई जोड़, कोई गाँठ नहीं।

पिछले बार की तरह इस बार हम “छोटे ही नहीं बने रहे”। मन बना लिया कि जाएँगे और डॉक्टर से बात कर जल्द से जल्द, बैंगलोर ले आएँगे। बिना ज़्यादा तोल मोल किए डी ने हमारा टिकट बना दिया। पूरी यात्रा में मन फिर से बहुत भटक रहा था और न गाना सुनने का मन कर रहा था, न ही कुछ पढ़ने का।

आनन-फ़ानन में घर पहुँचे तो दोपहर के कुछ चार बज रहे होंगे। माँ को बिस्तर पर सोते हुए पाया और कुछ लोग आसपास बैठे हुए थे। माथा एकदम ठनका कि इस समय माँ बिस्तर पर - जो आदतन कुछ न कुछ करते हुए हमेशा व्यस्त रहती थी वो इस वक़्त बिस्तर पर! वहाँ पर उपस्थित लोगों ने बताया कि अब तबियत अपेक्षाकृत अच्छी है। किसी तरह फिर बातें हुईं, थरथराहट नहीं थी तो थोड़ी सांत्वना मिली। उसी आनन-फ़ानन में रात हो गई और भीड़-भाड़ में खाना पीना भी हो गया।

दूसरे दिन से पर कुछ खलने लगा। जो चीज़ें बाय डिफ़ॉल्ट घर पर होती थीं उस दिनचर्या में बहुत ज़्यादा उलट फेर हो गया था। सुबह उठकर, ब्रश करते ही जो चाय नाश्ता तैयार रहता था, वो नहीं था। पापा ने चाय बनाई और ड्राय फ़्रूट्स डाइनिंग टेबल पर परोसा। वो उठते उठते जो पूजा की घंटी की आवाज़ कानों पर पड़ती थी और साथ में अगरबत्ती का धुआँ जो गुड मॉर्निंग बोलते थे वो भी नदारद! माँ सुबह नहीं उठ पा रही थी, न ही नहाकर पूजा कर पा रही थी।

हमने सुबह के नाश्ते के लिए इडली ऑर्डर करने का सोचा। ज़ोमैटो/स्विगी तो अब सभी जगह हैं तो लगा कि व्यर्थ में किसी को परेशानी भी नहीं होगी और नाश्ता भी हो जाएगा। स्विगी पर डिफ़ॉल्ट ऐड्रेस था - होम (बैंगलोर)। हमने बाक़ी की सूची देखी और करेंट लोकेशन का चयन किया - ऑटोफ़िल ने उसे घर बना दिया। बैंगलोर की इडली से भ्रमित हो हमने सोचा वैसी इडली सुपाच्य होगी, तो ऑर्डर कर दिया। कुछ देर बाद डेलिवरी भी हो गई और हम सबने बेस्वाद और बहुत ही ठोस इडली को किसी तरह बेमन खाया।

दोपहर के खाने की बात हुई तो माँ ने कहा कि नेनुआ (तोरई) की सब्ज़ी और दाल चावल ठीक रहेगा। फिर खुद ही उठकर आलू छिलने लगी। उनको मना करते हुए हमने उनसे छिलना लिया और आड़ा तिरछा जैसा भी हुआ छिल कर आलू को काटा। माँ का मन फिर भी नहीं माना और वो चावल चुनने लगी। आख़िर पापा और मेरे किचन के सीमित ज्ञान के कारण माँ को उठना ही पड़ा और किसी तरह उन्होंने ही खाना बनाया - दाल, चावल, नेनुआ और आलू भुजिया। हमने दोपहर में खाना परोसा तो फिर से ऐसा लगा कि इस किचन के बारे में हम कितना कम जानते हैं। पर इस बार माँ को उठने की नौबत नहीं आई।

इन दो दिनों में हमें कुछ बातें समझ आ गईं। वो बाइस साल का अंतराल और होम और घर का फ़र्क़ - जहां आप शायद बेझिझक काम करें, जहां आपको बिना किसी विशेष प्रयास के हाथ बढ़ाते ही मन वांछित सामान मिल जाए, जहां पंखा चलाने के लिए तीन-चार स्विच ना दबाना पड़े, जहां कमी खलती हो अपनों की। होम और घर बस भाषान्तर नही, भावान्तर हैं!

बेकर्स डज़न

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