Monday, July 09, 2012

आजकल मुझे भी डर लगता है

आजकल  मुझे भी डर लगता है
उम्मीदों  की क़तार देख डर लगता है
दबे हुए शब्दों में एक दबी हुई ज़िन्दगी देख डर लगता है
हर दौड़ को पीछे खींचते सोच से डर लगता है
आस भरी आँखें देख डर लगता है
डर  मिटटी भरे उन सोने के बर्तनों से लगता है .
जो थे मार्गदर्शक उनको भटकते देख डर लगता है .
ढकोसली  हँसी , बनावटी चेहरे देख डर लगता है
गलतियों को पर्दा डालती बातों से डर  लगता है
अवरोधरहित बहाव में पेचीदे मोड़ों को देख डर लगता है .

Wednesday, March 28, 2012

विश्वासघात

गुमनाम होने की तलब फिर जगी
अंधियारे में भटकने की कसक फिर जगी
जो भी पाया था, लुटाने की इप्सा फिर जगी
जो खोया था, उसे मिटाने की सोच फिर जगी
खुद को धुंध में भुलाने का मन हुआ
जो भी संजोया था, उसे बिखराने का मन हुआ. 

कितनी बार तो मन टूटा था,
पर आज ऐसा क्या हुआ -
किसी की आँखों में चढ़ना भ्रम था
वहीँ टिके रहना भी भ्रम था
विश्वास जीतना शायद एक वहम था
क्या किसी की नज़रों में ओछे दिखने का ग़म था?

विश्वास भी तो ताल पर थिरकते नट जैसा है
जम जाये तो विस्मित कर देता है
और थम जाये तो...

Monday, March 26, 2012

कल रात नींद नहीं आई

कल रात नींद नहीं आई
लगता है ज़िन्दगी ने अपना बोझ बढ़ा दिया था
बोझ और भार में यही फर्क होता होगा -
भार से सुनते हैं कोयला हीरा हो जाता है,
और बोझ से शायद कोयला धूल!!
बात वहीँ रुक जाती तो हवा हो जाती,
कुछ पनपता जेहन में और नींद में घुल-मिल जाता,
पर कुछ सिसकियों ने बात जकड ली,
कुछ घुला नहीं, धुला नहीं
और हवा हुई तो वो हुई नींद. 

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...