Friday, July 08, 2022

भागलपुरिया रेनेसॉंस

सन सत्तानवे का वो दसवीं बैच था ही ऐसा कि रेनेसॉंस जैसा शब्द ही उसके लिए उपयुक्त होगा। चुन चुन कर हीरे जवाहरात से जड़ा हुआ जत्था था। कुल मिलाकर क़रीब १२० के इस ग्रुप में कम से कम पंद्रह बीस तो ऐसे थे जो एक से ज़्यादा विधा में पारंगत थे - पढ़ाई के अलावा। और जो बचे वो अगर एक आयामी भी थे तो ज़िंदगी के मज़े लेने तो ज़रूर जानते थे। कुंठा इन्हें छू भी नहीं पाती थी।


चलिए कुछ किरदार चुनते हैं और उनके हरफ़नमौलापन की चर्चा करते हैं -

अब ऐसे हीरे पन्नों में कहाँ से श्रीगणेश करें ये भी एक विषम मुद्दा हुआ जा रहा है। चलिए रैंडम फ़ॉरेस्ट ही उठाया जाए। और रेफ़्रेंस सत्तानवे ही रहेगा क्योंकि अब सर पर गिने चुने बाल, तोंद फुलाए अधेड़ों की बात करें तो क़िस्सा अलग ही रुख़ ले लगा।


पगलु - क्या गाता था! किशोर, रफ़ी सा मंत्रमुग्ध कर जाता । और वही फिर खेल के मैदान में रोनाल्डो (ब्राज़ील वाला) सा माहिर! आपको क्या लगा बस - अरे नहीं, क्रिकेट और फुटबॉल दोनों में धुरंधर। तिसपर से खुश मिज़ाज इतना कि इनके शब्दों से पहले इनकी मुस्कान आप तक पहुँच जाती थी।


तानसेन - आहा हा! कवर ड्राइव मार्क वॉ सरीखे, मक्खन पर गर्म चाकू सा। ओपनर के लिए डिफ़ॉल्ट चॉइस।पक्का जेंटलमैन, बहुत शातिर दिमाग़ जो पढ़ाई और मौज-मस्ती में बराबर बंटता था। चटकोर ऐसा कि उस चक्कर में एकाध बार प्राचार्य महोदय की नज़र में चढ़ चुका था - जो जानते थे कि बच्चों की कितनी और कहाँ छँटनी करनी है। 


पोंगी - लेखनी हो, फ़्री किक हो या दिमाग़ी दॉंव-पेंच, सब में माहिर! और ऐसा माहिर कि उपनाम के पीछे कहानी बताने की आवश्यकता न हो शायद। पोंगी, पोंगा पंडित का ही अपभ्रंश है। दिमाग़ और याददाश्त का ऐसा कॉकटेल कि प्राचार्य महोदय के शेक्सपीरियन ड्रामेबाज़ी को वहीं के वहीं धराशायी करने में सक्षम। लेकिन भुटानी और दिप्पा इनकी इतनी टॉंग खिंचते थे कि कभी भी, कम से कम, हमारे बीच इनको वैसी इज़्ज़त न मिल पाई। मुहल्ले की मुर्ग़ी आख़िर दाल बराबर ही होती है।


गोलका - शारीरिक विशिष्टता को दरकिनार कर देते हैं। यह लड़का टेबल टेनिस कैसे खेल सकता था। छोटकी राहुल और कैफ़ी के साथ ये हमारे जोकर, राफ़ा और फ़ेडरर की तिकड़ी थी। और वैसा ही क्रिकेटर - हम नहीं बोल रहे पर सब कहते थे कि इंज़माम-उल-हक़ वाली वाईभ्स आती थी इनसे। गायकी तो इनकी विशिष्टता थी ही। पेट से इतना मधुर गाने का चलन जिसने भी शुरु किया हो, गोलका ने इसे एक नए स्तर पर पहुँचा दिया था।


चड्डी सिंह - अव्वल दर्जे का कलाकार। गाना गवा लीजिए तो वैसे ही हर हर्फ़ में खनक और उपर्लिखित सारे गायकों को काँटे की टक्कर देने वाला, स्केचिंग करवा लीजिए तो क्या हर्ज और क्या वाटरसन। आब-ए-हयात का ऐसा बीमार कि चार लड़कियों को खड़ा कर दीजिए गोल पोस्ट के पीछे और मजाल है कि एक भी पेनल्टी गोल में घुस जाए!


ऑंटी - उस ज़माने में सिद्धार्थ बसु के क्विज़ प्रोग्राम में शिरकत कर आए थे जब वो “दी सिद्धार्थ बसु” हुआ करते थे। अक्खड़ तो थे ही और इनके कटाक्ष से आहत होकर मुँह छिपाने की जगह भी नहीं मिलती थी।


झा बिरादर्स - यारों के यार। द्रुत दिमाग़ और वैसा ही कार्यान्वयन। प्रैक्टिकल जोक्स तो ऐसे कि शिकार खुद दाद देने पर मजबूर हो जाए। विमल, विक्रांत और पोंगी  अफ़सानानिगार की तिकड़ी - जिनके लेख पूरे क्लास के सम्मुख पढ़े जाते थे। अमल एकदम खरा सोना, तौलिए तो एकाध पाव उपर ही!


कैफ़ी - आलू। किसी भी माहौल में घुलने की क्षमता रखने वाला। क्लास में टीचरों की चुटकी लेने वाला जीवट। हमारी टीम का वसीम अकरम और चंडाल चौकड़ी का सरगना। और पच्चीस साल बाद इस समूह को चिपकाने वाला गोंद!


चिकना - मोहल्ले का स्टार खिलाड़ी और पहला ऐसा केस जो सिर्फ़ अपने सन्नी टोनी के भरोसे टीम में शामिल नहीं होता था। रक्षित और चिकना हुए हमारे ओजी। अपशब्द के उच्चारण से लेकर उनका सही उपयोग, इतना गहन ज्ञान और उनका इतनी सरलता से वितरण वो भी मुफ़्त- ऐसे सन्त महात्मा बिरले ही अवतरित होते हैं।


पीडी -  जितने आराम से केमिकल फ़ार्मूला बकते हुए इक्वेशन बैलेंस करता था उतने ही मज़े से फ़ील्ड गोल कर सकता था। न चाहते हुए भी खटास का चहेता। 


पाठक - सबका पंचिंग बैग। हमारा पड़ोसी और हमको बुरा भी लगे कि दोस्ती का अव्वल उसूल हम नहीं निभा पाते थे। पर उस उमर में कोई ख़ुद पर हँसना इनसे सीखे। और बहुत लोगों को पता नहीं होगा कि इनके गीतों का कलेक्शन किसी तलबग़ार से कम नहीं था और वो भी तब जब न इंटरनेट था और ना ही आई ट्यून्स! बैडमिंटन में अपने नेमसेक सुसी सुशान्ती जैसा ही प्रतिभावान।


अब आप ही बताइए इतने ज़िंदगी से भरे, क्रिड़ात्मक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मंडली में कोई कैसे सर्वरुपेण विकास से वंचित रह सकता है। फ़्रेंच में एक फ़्रेज़ है - ज्वा दा वीव। फ़्रांसीसियों की तो आदत है, लिखते कुछ हैं, पढ़ते कुछ, तो आपको जो उच्चारण और वर्तनी पता है आप वही पढ़ लें। सरल शब्दों में इसका अर्थ हुआ ज़िंदगी की ख़ुशी और ये टोली थी भरपूर ज्वा दा वीव से ओत प्रोत। वैसे ये हमारे टीचरों की भी सोच है कि वैसा बैच फिर कभी नहीं आया। शायद ज़माना ही अलग था जहॉं एक तरफ़ डीसिप्लिन के नाम पर हम पिटते भी थे, वहीं उस से बचने के लिए नये नये तरकीबें भी ईजाद करते थे। गुरुओं का वो प्रसाद तो शायद अब लुप्त ही हो गया है, जिसके लिए कबीर ने कहा था - 


गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि़ गढि़ काढ़ै खोट।


अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।


बेढंगे मिट्टी को जीवन के हर ठोकर के लिए तैयार अगर कुम्हार रुपी गुरु करते हैं तो ऐसे दोस्त भट्टी की गर्मी बाँट आपको चहुँओर से सुडौल बनाते हैं।


और हमें चकबस्त की बात से बिल्कुल ही इख़्तियार नहीं - जुहूर-ए-तरतीब से तो बस मिट्टी के माधो निकलेगें, असली ज़िंदादिली है अज़्जाओं का परेशान होना।


बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...