Thursday, November 30, 2017

चारदीवारी

जोड़ के ईंट और गारा
बना लिया अपना संसार
अपने हिस्से की धूप,
अपने हिस्से की हवा-पानी
कर लिया जग से बँटवारा।

यहीं पर बॉंध लिया दु:ख सुख को
संजो लिया रौशनी और अंधियारा
ईकाई समाज की ही है
पर सामाजिक नहीं ये बँटवारा।

बाहर बहुत क्रोध है
यहॉं नहीं कोई अवरोध है,
भ्रम हो तो वही सही
पर सुकून है यहीं,
मन यहीं अबोध है।

यदा कदा बाहर सोपान पर
अभाग्य सर पीट जाता है,
दरवाज़े की कुंडी कभी क्लेश
खटखटा कर भाग जाता है। 

मगर जब कोई अपने बोझ को
यहीं पटक निकल जाता है -
वो त्रासदी, मन विचलित कर जाती है
इस चारदीवारी के उद्देश्य को
बिल्कुल खोखली कर जाती है।

Saturday, November 25, 2017

गुलज़ार

फूलों के गुच्छे हैं लदे
जाने क्यों कॉंटों की चर्चा है
खुशियों को दरकिनार कर
जाने क्यों हर दिल ग़म से वाबस्ता है!

जो पग अंगारों पर चलते हैं
उनका कॉंटे से ही रिश्ता है
गुच्छे तो उनको बहलाते हैं
सुकून जिनके दिल में बसता है।

मुनसिफ नज़रों से देखो तो
न फूल हैं, न कॉंटे वहॉं,
जिसपर जो जो गुज़री है
गुलज़ार में उसे वही दिखता है।

Thursday, November 23, 2017

ब्रह्मराक्षस

कुल में जन्मा, कुलीन न हो सका!
मर्यादा, अहंकार सब है बदा
रहा निर्जीव, सजग हो न सका!
संग थे पोथी, पंडित और अभिमान
कितने वेद, कितने छंद, कितने पुराण
रहा मूक, कंठ उनको दे न सका!
कर्म को ही धर्म बना -
जन्म क्या और जीवन क्या?

वो जो रहे अपदस्थ, वंचित
जन्म का श्राप ढोते हुए,
लालायित, आशापूर्ण आस लगाए हुए!
मुँह फेर, जाने बुरा किया या भला?
बोझ उनका था ज़्यादा 
या उम्मीद थी हमारी भीमकाय।
हाथ न दो तो किस्मत को कोसते,
जो बढ़ाओ हाथ तो होती न ज्ञान की हूक,
सुगम पथ पर कौन बना महान!

संजोया थोड़ा पर बांचा नहीं ज्ञान,
दूसरों के दु:ख से रहा सर्वदा अनजान।
हर झोंके में खोया खुद को
अनवरत रख न सका स्वाभिमान।
कुलीन होने के सारे गुण -
स्वार्थ, अहं को सौंप कर
सशक्त कर, बनाया उनको ही सर्वशक्तिमान!

मौत होगा एक अभिशाप 
या होगा निरवान!
जागकर शैया से बनूंगा क्या?
भटकता प्रेत या ब्रह्मराक्षस!

Wednesday, November 15, 2017

मुक़द्दर या ख़ुद्दारी

मुँह बाये खड़ा था मुक़द्दर 
हमने आंका तो ख़ुद्दारी 
भभक उठी।
सवाल किए,
बड़े पेचीदे।
जो आस ही रखते हो,
तो व्यर्थ क्यों जलते हो?
गिरना हो शायद मुक़द्दर,
गिरकर उठना है ख़ुद्दारी।
भटक जाना भी हो शायद मुक़द्दर,
राह एक नई खोज लेना है ख़ुद्दारी।
अक्ल पर परदा दारी,
है मुक़द्दर
और मात न खाना है ख़ुद्दारी।
तकदीर हो शायद तेरा मुक़द्दर,
उसका, तेरी रज़ा पूछना, है ख़ुद्दारी।
गिरो, भटको, कोसो तकदीर को
गर चुनना ही है मुक़द्दर
काट कर, दफ्न कर दो ख़ुद्दारी।

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...