Friday, May 24, 2019

रेखा

चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं।

-त्रिलोचन

ये अचरज हमने भी देखा है
अखबार सुबह जब हम पढ़ते हैं
मायरा की ऑंखें हम पर टिक जाती है-
क्या हो जाता है पॉप्सी को?
इन कागजों में ऐसा क्या है,
जो नजरें मुझसे हट जाती हैं
कहीं मोटी कहीं पतली
देखने में तो बस आड़ी तिरछी रेखा है।

Tuesday, May 07, 2019

अब वो चलना सीख रही है

उत्सुक सी 
वो अब हर कोने को टटोल रही है
कभी लुढ़ककर
कभी पकड़कर
अपनी दुनिया का विस्तार कर रही है
पैरों पे अपना वजन 
तौल रही है
डगमगा कर 
गिरती सम्भलती है
उठकर गिरती
गिरकर फिर उठती
जैसे मानव मन की उपमा दे रही है
अब वो चलना सीख रही है

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...