Monday, March 18, 2024

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानकारी दी है। आत्मकथाओं से जिस तरह की सीख की अपेक्षा होती है उस में यह किताब खरी उतरती है; पढ़ने के लिए हम भी सुझाव देते हैं।

नाइट लिखते हैं कि अपनी जवानी में उन्होंने कई देशों की सैर की जिसमें से एक विशेष उल्लेख है ग्रीस के टेम्पल ऑफ एथेना/नाइकी की। अब उनकी कम्पनी के नाम के लिए प्रेरणा स्त्रोत कहाँ से आया, ये तो ज़ाहिर सी बात है। पर जिस तरह उन्होंने एक्रोपॉलिस की व्याख्या की है कि कैसे वहाँ खड़े होकर उन्हें ये अनुभूति हुई कि पाश्चात्य सभ्यता का जन्म उसी जगह से हुआ; कुछ महीने पहले हम भी उस स्थान पर खड़े थे - हमें तो वैसा कुछ महसूस नहीं हुआ था। हाँ देखकर उसकी भव्यता और महत्ता पर विस्मय ज़रूर हुआ था। शायद ये हमारा पूर्वी अहंकार रहा हो जिसने हमारे आँकलन की युक्ति पर पर्दा डाल दिया हो।

खैर आगे बढ़ते हुए कुछ एक चौथाई किताब पढ़ने के बाद हमारा ध्यान “बेकर्स डज़न” पर अटक गया। अब इसका अर्थ तो हम जानते ही थे, कई बार ख़ुद शो ऑफ़ के चक्कर में इस्तेमाल भी किया है, पर आज मन अटक गया इस शब्द की व्युत्पत्ति पर।

गूगल से जानकारी मिली कि मध्यकालीन इंग्लैंड में बेकर्स के लिए बड़े ही सख़्त नियम थे - बेईमानी संगीन जुर्म था और जुर्माना उतना ही भयानक। इससे बचने के लिए बेकर एक और कभी-कभी तो दो लोफ़ ज़्यादा पैक कर बेचते थे। ऐसा करते-करते, ये एक तरह से प्रथा ही बन गई और इस तरह से अंक तेरह के लिए एक उपनाम बन गया बेकर्स डज़न!

ये पढ़कर हमें इससे मिलती-जुलती एक और कहानी याद आ गई। कुछ तीस साल पहले हमारे बचपन की कहानी।

दूधवाले उन दिनों दूध वितरण के लिए, कनस्तरों के गुच्छों को अपनी मोटर साइकिल की पिछली सीट पर दाएँ-बाएँ बांध कर निकला करते थे। अमूमन ये मोटर साइकिल या तो राजदूत होती थी या बुलेट! बुलेट उन दिनों अलग ही ब्रैंड था और उस पर रॉयल टैग नहीं हुआ करता था और ना ही उसकी ज़रूरत थी। गिने चुने लोग ही चलाते थे और ख़ुद को बछिया के ताऊ से कम नहीं समझते थे।

हमारे यहाँ भी दूध के लिए क़रीब-क़रीब ऐसी ही व्यवस्था थी। और व्यवस्था जितनी पुरानी होती है रिश्ता उतना ही मज़बूत बनता जाता है। और चूँकि माँ को वो दीदी बुलाते थे तो हमारे लिए वो मामा हो गए। 

तीन भाइयों की टोली थी - कैलाश, शंकर और महेश। जी हाँ महादेव के ही अवतार! अक्सर कैलाश मामा ही आते थे। ख़ुशमिज़ाज से, मुस्कान चिपकाए हुए अपनी साइकिल पर दूध कैन टाँगे हुए। गेट पर से ही चिल्लाते हुए - “दीदी दूध!”


बाकी दो भाई कभी-कभी ही अवतरित होते थे। लेकिन उनमें ख़ासा फ़रक यही था कि वो काली बुलेट पर काले कपड़ों में ही आते थे। दूध दही खाया हुआ शरीर और बस अपने काम से काम। जब उनको दूध को एक कनस्तर से दूसरे में डालते देखते थे तो हमारे अबोध से मन में बड़ा ही माचो सा इमेज बनता था - कि बड़े होकर यही काम करना है! और साथ में फ़िल्मों और कहानियों में सुनी सुनाई बात वाली शंका भी उभरती थी कि ऐसे खुलेआम दूध में पानी कैसे मिला रहें हैं ये लोग! 

 

और हमें लगता है, लगता क्या है, शर्तिया यही बात है कि हमारे अचेतन मन ने उसी इमेज से प्रोत्साहित होकर हमें काली बुलेट लेने के लिए प्रेरित किया था।


तीनों ग्वाल बंधुओं में, भैरव के नाम के अलावा, एक और समानता थी - वही बेकर्स डज़न!


उनके पास माप के लिए क़रीब एक क्वार्टर लिटर का ग्लासनुमा बर्तन था जिसे स्थानीय भाषा में पौआ कहते हैं। अब ये उनका अपराध बोध था या उदारता कि वो छह पौआ नापने के बाद, हमारी डेगची में थोड़ा ज़्यादा दूध डाल देते थे। और अगर हमने माँग की तो करीब आधा पौआ अधिक दूध दे देते थे।


ये सब सोचते हुए कुछ और बातें याद आईं कि कैसे पहले लोग सब्ज़ी ख़रीदने के बाद एक गुच्छा मिर्च, धनिया पत्ता, कुछ नहीं तो निम्बू ही उठा लेते थे। उसे भी क्या बेकर्स डज़न कहना ठीक होगा। नहीं जिस तरह से बेझिझक ये लोग अतिरिक्त आइटम उठाते थे उसे शायद बायर्स धाक कहना सही होगा।


अब तो ऐसा है कि न हमने आज तक अपने दूध वाले को देखा है - मुँह अंधेरे ही बाहर रखे झोले में कोई दूध के पैकेट रख जाता है, पेमेंट औनलाइन हो जाती है - न ही ये पता है कि हर रोज़ जो प्लास्टिक के पैकेट उठाते हैं उसमें दूध है भी या कृत्रिम गोरस! 

Thursday, March 07, 2024

Prejudice

 
जानिए कि जो खूबसूरत है 

वही सशक्त है

जो सशक्त है 

वही खूबसूरत!

चारदीवारी के इस तरफ

अल्फा है, बेटा है, गामा तो कई हैं

उस तरफ दबती हसरतों से उपर उठती 

चाहें हैं, हौसला है,

और हॉं

बेटा और गामा की मॉं है!

तो चारदीवारी बनाने वालों

बस ये जानिए 

कि जो खूबसूरत है 

वही सशक्त है

जो सशक्त है 

वही खूबसूरत!

Saturday, February 17, 2024

कविता

कविताएँ अमर होती हैं -
युगों की व्याख्यान
दशकों की टोह लेती है।
कहीं हर्ष 
कहीं संघर्ष,
बिस्मिल कहीं,
पाश कहीं,
व्यग्र भीड़ को छंद देती है,

कविताएँ अमर होती हैं।


कभी विषाद
कभी आह्लाद;
कहीं बल
कहीं आस
शब्दों को धुन
धुनों को शब्द देती है;
कितने सपनों को पंख
कितनों को उड़ान देती है,
कविताएँ अमर होती हैं।

Monday, January 01, 2024

जुकाम

दिमाग़ के 

सारे पोर बंद हैं

न स्वाद है

न सुगंध है

ये जुकाम बड़ी बेरहम है।


ऑंखों में खुमारी 

टूटते बदन के

हर हिस्से में ख़म है

ये जुकाम बड़ी बेरहम है।


उठती सॉंसों में

विरक्ति,

उतरती में बलगम है

ये जुकाम बड़ी बेरहम है।

Tuesday, November 21, 2023

उम्मीद

उम्मीद समर
उम्मीद भँवर 
उम्मीद सफ़र 
उम्मीद ही हल।

उम्मीद जीवन
उम्मीद किरण 
उम्मीद रंग
बस उम्मीद ही संग।

उम्मीद राग
उम्मीद से आग
उम्मीद विवाद
उम्मीद ही वाद।

उम्मीद पहल
उम्मीद सबल
उम्मीद के आगे
व्यर्थ जिरह।



उम्मीद की एक और लड़ी- (सधन्यवाद पापा)

उम्मीद है रंग
उम्मीद तरंग
जीवन का यह प्रसंग
उम्मीद चाह
उम्मीद राह
जीवन का यह प्रवाह
उम्मीद ही रीति 
उम्मीद ही नीति 
उम्मीद से प्रीति

Thursday, October 19, 2023

चाय बहाना है

चाय बहाना है
दिनचर्या सुनाने का
किसने, किससे, क्या कहा
बताने का
शीत युद्ध में
थोड़ी गर्माहट लाने का।

चाय बहाना है
सुनने सुनाने का
कैसा रहा आज
और ट्रैफ़िक वाली बात
कितने कॉल्स आज रात
रूटीन सी दिन को
स्पेशल बनाने का।


Thursday, August 10, 2023

आ भी जाओ कि मन नहीं लगता है

वैरायटी की कमी है
हर धुन अब शोर लगता है
ख़ुशबू की परत नहीं उड़ती,
सब बड़ा बोर लगता है
टिप्पणी के बिना कपड़ों का चयन
अब एक चोर लगता है,
रंग फिर नीला है चढ़ा
बेरंग शाम और भोर लगता है।
अदरकी चाय बनाना भी
दिलोदिमाग़ पर लोड लगता है।
 भी 
जाओ
कि अब मन नहीं लगता है।

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...