Friday, July 21, 2017

भीड़

मुल्क़ के हश्र की आओ सुने दास्ताँ
अनुशाषन लटका ताक पर,
कोने में दुबक कर,
सिसकी भर रहा हिंदुस्तान।

बिस्मिल, आज़ाद, भगत के
किस्सों पर खिलखिलाते नौजवान,
निठल्लों की खड़ी फ़ौज
कैसे हो भारत महान।



ज़िन्दगी चाल हुई महंगी बिसात पर
मौत का तिजारत हो गया सस्ता।
अब तो हर अड्डे-नुक्कड़ पर,
क्या चाय की टोलियॉं और क्या फेसबुक
सभी जगह है एक इन्किलाबी दस्ता।


पत्थर बरसे प्रहरी पर,
लठ बरसे सैनिक पर,
सर कटे जिस्मों का
लगता जाता ढेर
कश्मीरियत की ढाल के पीछे
चल रहा निन्यानवे का फेर।

गरीबों के लिए लड़ने वाले
खुद अमीर हो जाते हैं।
आज़ादी के नारे लगाकर
अपने आराम गृह को रुखसत हो जाते हैं।
मोमबत्तियों की भीड़
धू-धू कर जलती है।
ख्याल पकाओ उसमे
देखो शायद अब भी आंच बाकी है।

क्या, क्यों, कब बदलेगा
हमसे मत पूछो ये सवाल।
लठ, ज़ंजीर, हथियार उठाओ
चलो मिलकर करें बवाल।

कर्तव्य विमुख

खिड़की से आसमान ताक रहा था -
एक हल्का फुल्का सा बादल,
जैसे एक बहुत बड़े बादल से बने
रथ को खींच रहा था।

नैपथ्य में सुदूर सफ़ेद बादलों का एक बिखरा समूह था
शायद ऊपर से देख कर इठलाते हुए
मुस्कुरा रहा था।

ये छोटू लगा रहा
खींचता रहा,
और धरती पर नीचे उसका साया पड़ा -
छोटू का तो नहीं
लेकिन उस रथ का।

नीचे धरातल पर
घटा छा गयी,
मल्हार गए जाने लगे,
तपती धरती को जैसे चैन की साँस मिली।

आस में लगे उस कृषक के चेहरे पर
मुस्कान आ गयी।
कितना फरक है उस सुदूर
कर्तव्यविमुख उन बादलों में
और झुर्री पड़े इस चेहरे पर ! 

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...