Wednesday, November 04, 2020

तिल का ताड़

हिन्दी में भी, अन्य भाषाओं की तरह, एक शब्द के कई अर्थ होते हैं। ऐसे अनेकार्थी शब्द अलंकारों में बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं, मसलन- 

“कर का मनका डारि कै, मन का मनका फेर!”

अब कबीर के दोहे में तो जाने कितनी परतें होती हैं। हर दिन एक नया अर्थ ही मिल जाता है। और जिस तरह ज़िंदगी की गिरहें खुलती हैं उसी तरह इन दोहें की परतें। अनेकार्थ शब्द तो बस एक पहलू है कबीर के दोहों का।

ये तो हुई आध्यात्म की बात। फूहड़पन में भी ऐसे अनेकार्थी मिल ही जाते हैं। जैसे कि एक शब्द है - ताड़। इसके एक अर्थ की नुमाइंदगी तो हर गली नुक्कड़ पर रोडसाईड रोमियोज़ देते रहते हैं और दूसरा अर्थ भी सर्वज्ञ है, जैसे -

“बड़ा हुआ तो बढ़िया है, जैसे ताड़-खजूर,

चढ़ने में मज़ा आए, फल मिले भरपूर”।

उपरिलिखित दोहे का पूरा क्रेडिट जाता है बचपन के हमारे मित्र “झा ब्रदर्स” को! ये दोहा उनका बोर्ड परीक्षा के बाद मेरे लिए फ़ेयरवेल गिफ़्ट था।

तो इसी शब्द के दोनों अर्थों के साथ फूहड़पन की लपेट में एक बार हम भी आ गए। बात उन दिनों की है जब रुड़की विश्वविद्यालय के लिए अलग से फ़ॉर्म भरना होता था और उसको फिर रजिस्टर्ड पोस्ट से भेजना होता था। इसी काम को अंजाम देने, सुबह दस बजे हम नहा धोकर पहुँच गए बड़ी पोस्ट ऑफिस।  पीक ऑवर रहा होगा, क्योंकि कांउटर पर कुछ दस-बारह लोग हमसे आगे खड़े थे और हमारे पहुँचते पहुँचते तीन चार हमारे पीछे। अब तो इतनी बड़ी लाइन लगती भी न हो, क्योंकि आजकल तो सब कुछ ऑनलाइन ही हो जाता है। 

ऐसी लाइनों में अकसर वो साईड एंट्री वाले लोग प्रयासरत रहा करते थे। ‘वी आई पी’ बन नहीं पाए तो क्या हुआ, ऐसी टुच्ची लाइनों के लिए वो ख़ुद को ‘वी आई पी’ ही समझते थे - लाइन को नज़रअंदाज़ कर सबसे आगे पहुँच जाने वाले। तो अगर आप फैल कर नहीं खड़े हैं तो आपकी बुड़बकी है - आइए फिर लन्च के बाद!

बस इसी इंच को माईल नहीं बनने की जद्दोजहद में हम अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे कि अचानक हमारे पीछे हो हल्ला मच गया। गहमागहमी में हमने देखा चार-पॉंच लोग एक फ़िरंगी महिला के साथ स्पीड पोस्ट वाले काउंटर की तरफ़ बढ़ रहे हैं। वो कम से कम छह फुट की तो ज़रूर रही होंगी और साड़ी के कारण और भी लम्बी लग रहीं थीं। स्पीड पोस्ट का रेट रजिस्टर्ड पोस्ट से कम ही होता हैऔर इसलिए भीड़ भी साधारणतः वहॉं ज़्यादा होती है। पर उनके वहॉं पहुँचते ही भीड़ लाल सागर की तरह पट गई और दोनो तटों पर कतारबद्ध जनता बिना पलक झपकाए टारगेट लॉक कर तैनात!

ये तो बिलकुल ही शहर की गरिमा पर सवालिया निशान था। विदेश से आई मेहमान को कम से कम ऐसे तो नहीं ताड़ो भाई!

वैसे कुछ देर में एक अलग ही रंग देखने को मिला इस वाक़ये का। लेकिन वहॉं पहुँचने से पहले ऐसे नमूनों का चरित्र चित्रण बहुत ज़रूरी है। ये लोग शायद राजकीय परंपरा अनुसार विदूषकों के वंशज रहे होंगे। और चूँकि भागलपुर ऐतिहासिक अंग प्रदेश के नाम से विख्यात है तो यहॉं विदूषकों की कमी नहीं है। इनकी काबिलियत ये है कि ये राह चलतों पर टिप्पणी कर आगे बढ़ जाते हैं । मतलब हमने अपना काम कर दिया आपको हँसी आई तो हँस लीजिए । ऐसे विदूषक बैंक काउंटरों पर, बिजली बिल वाली लाईनों में या पान दुकान पर अकसर दिख जाते थे। और अब ऑनलाइन युग में कमेन्ट कर डिलिट करने वाले ऐसी श्रेणी में आते हैं।

कुछ देर तक छटपटाने के बाद हमारे ठीक पीछे खड़े विदूषक से रहा नहीं गया और अपने अंदाज़ में उन्होंने एक ‘रिटोरिक’ दागा - “विदेशी हैं और देखिए साड़ी पहन ली हैं।” अब या तो ये सवाल पूरी लाइन से था या फिर वो बस अपनी मन की बात कह गए। इससे पहले कि वो अंग-रंग की कोई टिप्पणी करते हमने उनको करीबन टोकते हुए हामी भर दी।

“अलबत्त लम्बी है लेकिन, ताड़ गाछ एकदम!”, वो नहीं रुकने वाले थे।

मुस्कान देकर हमने फिर हामी भरी।

अब जब माहौल जम गया तो उन्होंने हमको और हमारे कद को लपेटे में लेकर पंच लाइन दागा -

“एगो आप ही भागलपुर का इज़्ज़त बचाए हुए हैं यहॉं!”

आगे के दस-बारह, पीछे के चार-पॉंच और लाल सागर की तट पर वाली जनता, सबने एक बार तुलनात्मक दृष्टि हम पर डाली और सहमति में सर हिलाया। बस वो लोग एक विजयी चीख मारते मारते रह गए या कम से कम हमें तो ऐसा ही लगा। पर पूरे भागलपुर की इज़्ज़त- ये थोड़ा ज़्यादा हो गया! कुछ इतनी सारी नजरों का हमारी तरफ मुड़ना और कुछ ऐसी ज़िम्मेदारी का एहसास, हम बस चेहरा लाल किए अवाक् से खड़े रह गए।

Thursday, September 10, 2020

भेल पूरी वाला

शिक्षा के उद्यान में

सरल से परिधान में

ठेले पर भर चटकीले पकवान

स्वाद बॉंटने आता था

अरे नहीं

वो तो प्यार बॉंटने आता था


मिला मिला कर पूरी भेल

थोड़ी मूरीखूब कड़वा तेल

थोड़ी चटनीपापड़ी थोड़ी

ज़्यादा के लिए फिर जी हुजूरी

हमें ज़िंदगी के रस दिखाने आता था

अरे नहीं,

वो तो प्यार बॉंटने आता था!


पापड़ी पर जम कर दही का तड़का,

उसके उपर जीरा का छौंका

मिर्च लालइमली खट्टी

हरी हरी धनिया की पत्ती

जीभ पर रंग लगाने आता था

अरे नहीं,

वो तो प्यार बॉंटने आता था!

Tuesday, September 08, 2020

मेरा नया बचपन


कभी-कभी उन यादों में

मन भटक-भटक सा जाता है

जब दिन सुनहरे होते थे,

शामों में ख़ुशबू तैरती थी

रातों में गीतों और सुरों की

निश्छल चॉंदनी छलकती थी।

बचपन के उन अनमोल पलों में

जब मन भेद नहीं जानता था,

उत्साहजोश के धवल रंगों में

दिशाहीनदौड़ता फिरता था।


एकविध इस जीवन में

बचपन फिर मिल ही जाता है।

किलकारी किल्लौल में जैसे

दिल रम सा जाता है।

मन बोझिल जब भी होता है

और बिटिया दौड़ 

गले लग जाती है;

मन को शीतल,

चित्त को प्रफुल्लित कर जाती है।

पेटछाती और तन पर

कूदकुलाँचे मारती है,

अपने नन्हीं बोझरहित काया से

हर बोझ हवा कर जाती है।


दिन फिर सुनहरे हो जाते हैं,

शामों में ख़ुशबू भर जाती है

रातों में नवल गीतों और 

सुरों की अल्हड़ चॉंदनी,

खूब छलकती जाती है।

इन खुशियों के पल का फिर

नया ही मोल मिल जाता है!

Tuesday, August 11, 2020

चित्त रोगी

यशोधरा के बारे में बहुत सुना है। कभी पढ़ नहीं पाया हूँ । एक बार किसी जानकार ने “सखि वो मुझसे कहकर जाते” की भी चर्चा की। गुप्त जी के लिए सम्मान चौगुना हो गया । ज़माने की बात होती है, या यूँ कहें कि जुग की - औरत के परिप्रेक्ष्य से, उसके नज़रिए से ऐसे युगपरिवर्तक का किस्सा सुनाना। 

मैथिली शरण गुप्त की काव्य रचनाएँ ऐसे ही नए परिप्रेक्ष्य के कारण साहित्यिक स्तंभ माने जाते हैं।वैसे जुग और युग शब्दों में भी कितनी भिन्नता है; सारे रुढ़िवादी, पीछे खिंचने वाले विचार, जुग में विश्वास करते हैं; सारे प्रगतिवादी, आधुनिकतावादी, युग में। हॉं, बात वो एक समय की ही करते हैं - अर्थ एक पर सार पृथक!

आज परसाई जी को पढ़ते पढ़ते एक बार फिर उस महाकाव्य की झलक भर मिली। अब मैथिली शरण गुप्त की ऐसी रचना कोई एक दिन में तो पढ़ नहीं सकते, तो मन बनाया कि किसी छुट्टी के दिन यशोधरा का श्रीगणेश करेंगे। और किताब से पढ़ेंगे, ये सॉफ़्ट कॉपी में हमारा कभी जी नहीं लगा। आप सॉफ़्ट कापी में ‘पी डी एफ’ पढ़ सकते हैं, पर महाकाव्य के लिए हाथों और दिमाग़ पर बराबर का वजन होना चाहिए। सिर्फ़ पढ़ना हमारा मक़सद नहीं, हमारी भी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।


तो हमारी अपनी दुकान अमेज़ॉन पर सर्च किया और किताब मिल भी गई। बस अब छुट्टी का इंतज़ार है, जो कि कोरोना काल में तो मुश्किल ही लग रहा है। वैसे महाकाव्यों को पढ़ने के लिए किसी पहाड़ी छुट्टी की दरकार होनी चाहिए। क्यों? अब आप ही सोचिए कि समंदर किनारे, लहरों की आवा-जाही तो खुद एक काव्य रचना है, फिर वहॉं कहॉं महाकाव्य।


अब फिर से सोचिए हल्की मंद हवा, थोड़ी शीत समेटे आपको ठिठुरा जाती है। आप अपनी चादर को थोड़ा और जकड़ कर बॉंध लेते हैंऔर कॉफी के लिए हाथ बढ़ाते हैं। बाल्कनी के दूसरी तरफ आप ही की तरह, खुद को धुंध में जकड़े एक हरी भरी पहाड़ी आपको ताक रही है। ऐसे परिवेश के लिए ही महाकाव्य लिखे जाते हैं। सुनहले धुँधलके के बीच गोते खाता हुआ दिन, सुस्त गति से गुजरता हुआ; रातों में झिंगुर और यदा कदा बहती हवा की मद्धम आवाज़। ऐसी पृष्ठभूमि पर आप महाकाव्य को अपनी परिकल्पना से चित्रित कर रहे हैं। 

ना! ‘बीच’ पर ऐसा कहॉं हो सकता है।


और फिर कथानक के आविर्भाव के लिए ऐसी विचारोत्तेजक रचनाएँ उतनी ही आवश्यक हैं जितनी अच्छी फसल के लिए उर्वरक। विचारों का उमड़ना उस उल्टी की तरह होती है जो खाद्य पर नहीं आपकी पाचन शक्ति पर निर्भर करती है। पाचन अच्छी तो आप ऐसी रचनाओं को रगों में दौड़ते पाएँगे। लेकिन कहीं कोई शब्द या भाव ने किरकिरी की तो रचनाकार कुछ अपाच्य, कुछ ख़ुद के पाचक रसों को उलट देता है। एक कृति में पूरी तरह से चित्त शांत नहीं हुआ तो और भी उल्टी निकलती ही रहती है। और महाकाव्य रचने के लिए तो आपको पित्त रोगी ही बनना पड़ेगा। यशोधरा सदृश रचनाओं को पढ़ने तक के लिए भी, आपको पहले जमीन पाटना पड़ेगा। तो रचनाकारों आपके लिए है ये आवाहन: 

पहाड़ों पर जाएं, ज़मीन पाटें, उर्वरक डालें और चित्त/पित्त रोगी बनकर उल्टी करते हुए वापस लौटें।


Friday, August 07, 2020

जीवनदायिनी

अंगों को समेट कर
इतनी जगह बना ली 
कि उसमें एक ज़िंदगी समा जाए। 
दिल बड़ा कर वेगपूर्ण किया रक्तचाप 
कि नई धमनियों सुर्ख़ हो जाए। 

क्यों न हो हर पीड़ा 
हर दर्द से एक आत्मीय बंधन
चेतना जिसने भी दी हो 
जड़ का तो तुमने ही किया सिंचन। 

कोई गिनता दिन, 
कोई महीने 
पर तुम्हें था धड़कनों का एहसास, 
तुम अतुलनीय, 
अकल्पनीय, 
तुम जीवनदायिनी
तुम धड़कन,
तुम्हीं थी उसकी सॉंस!

Thursday, August 06, 2020

अब वो रुठना सीख रही है

जो बात कभी
न हो मन की,
या उसकी लय धुन में
रोक टोक हो
किसी परिजन की;

मुँह फुलाए,
चेहरा तमतमाए
कभी एक कोने में
सिमटकर,
कभी दूर भाग कर सबसे
झुंझलाते चीखते,
चीजों को फेंकना सीख रही है

अब वो रुठना सीख रही है।

Wednesday, August 05, 2020

उसने मुझे निरस्त्र देखा है

मानसिक द्वंद्व में

विचारों से ओत प्रोत

उसने मेरे पेशानी पर 

बल पड़ते देखा है,

उसने मुझे निरस्त्र देखा है।


ढोंगदिखावे में लिप्त

उसने मेरे मन का खोखलापन

उसकी बेलगाम दौड़,

बेवजह उसका फिसलकर

गिरना देखा है।


आडंबर वाला 

ढकोसला अहं,

विश्वासहीन

बाणों की तूणीर

और तैश में 

फुदकना देखा है,

उसने मुझे निरस्त्र देखा है।

Wednesday, July 22, 2020

सुगम राह

बिहार के मिडिल क्लास परिवारों में पढ़ाई पर हमेशा से बहुत ज़ोर दिया जाता रहा है।  फलाँ का लडका नेशनल टॉपर था; फलॉं के लड़के ने आई आई टी में रैंक पाया। दिन भर आपको ऐसी ही होनहारों के किस्से सुनने को मिल​​ते हैं। अब ज़ोर पढ़ाई पर होती है या रिज़ल्ट पर ये विवादास्पद है।


हमारा वक़्त कुछ वैसा ही था, लालू राज में राज्य से बाहर नहीं निकल पाए तो सुनहरे अक्षरों में आपके ललाट पर लूज़र अंकित हो जाता था। फिर बिहार में बहार, नितिशे कुमार आए; बदला कुछ नहीं, हॉं नॉनिहालों को उनकी हर असफलता, जीवन-मृत्यु सदृश संघर्ष, बताई जाने लगी।


“आप विश्वजीत के भाई हैं न?”

“यस मैम!”

“अच्छा, लेकिन अपने भाई जैसा बनिए। पढ़ाई पर ध्यान दीजिए।”

मिसेज़ उषा नारायण के साथ उपरोक्त संवाद क्लास सिक्स की है और हमें हमारा लक्ष्य उस वक्त ही थोप दिया गया था। अब हमारे अग्रज ने बेंचमार्क भी तो वैसा बना रखा था कि लोग हमसे वर्ज़न टू की उम्मीद लगाए बैठे थे। वैसे हमने कोई कसर नहीं छोड़ी थी यह स्पष्ट कर देने में कि बेहतर वर्ज़न टू बस सॉफ्टवेयर में ही होता है, आम ज़िंदगी में ऐसी आशाएँ बस कुंठा का ही कारण बनती हैं। लेकिन हमारे टीचरों को कौन बताए ये सब और कौन बताए कि तुलना, हीन भावना की जननी है। अगर हर कोई एक समान होता तो नरेन्द्रदत्त सत्य की खोज में क्यों ही भटकते और विवेकानंद तो कदापि न बन पाते।


“आपका बड़ा भाई है न, क्या नाम है; ख़ैर! वैसा दिमाग़ नहीं है आपका। और मेहनत करिये, खेलने कूदने से नहीं होगा”, हमारे मैथ्सटीचर, जावेद सर ने भी अपना जजमेंट सुना दिया था। 

क्लास एट तक आते आते हमें ज्ञात हो गया था कि विरासत में हमें धन मिले न मिले तोहमत ज़रूर मिलती रहेगी। अब जितनी रुचि और जितना दिमाग, उतना ही परिणाम तो लाज़मी है। 


वैसे तो आए दिन कुछ न कुछ होता था जिसे तुलनात्मक दृष्टि से परखा जाता था। पर हद तो तब हो गई जब एक दिन हमें पिछले बेंच पर खड़ा कर भैया को बुला लिया गया। मूर्ति दर्शन करवाने के बाद (अब इतनी बेइज़्ज़ती हो रही थी तो हम तो शर्म से मूर्ति ही बन गए थे) मिस अर्पिता ने कुछ ऐसा कहा कि बात खटक गई - “बहुत नाम रौशन कर रहा है”। सिसकियाँ भी आई थीं उस दिन पर फिर थोड़ी नोक-झोंक, कुछ उस परिप्रेक्ष्य से क्लास का दर्शन और फिर हाइड्रॉलिक पंप पर सह-मूर्ति के साथ डिस्कशन - इन सब ने मन बहाल कर दिया।


उस वक्त तक हमने रॉबिन विलियम्स की ‘डेड पोएट्स सोसाइटी’ नहीं देखी थी और वैसे भी उस वक्त अंग्रेज़ी फ़िल्मों का ज्ञान कहॉं था! पर अब, जब भी उस फिल्म को देखते हैं और जब उसमें राॉबिन विलियम्स का किरदार अपने छात्रों को बेंच पर चढ़ कर नए परिप्रेक्ष्य की बात कहता है, तो हमें अपना वो दिन याद आ जाता है। ये बात अलग है कि हमारे किस्से में कैप्टन भी हम, सेलर भी हम। ‘ओ कैप्टन माय कैप्टन’ की धुन भी हम, किरदार भी हम और बुलंद होती ख़ुदी भी हम।


हंसते, खेलते और ऐसे कितने ही उलाहना भरे दिनों को पीछे छोड़ते, आख़िरकार बोर्ड परीक्षा भी ख़त्म हो गई। अपने ही स्कूल में ग्याहरवीं क्लास में एडमिशन भी मिल गया। जी हॉं ये बड़ी उपलब्धि है, कितनों को डिसीप्लिन और जाने क्या क्या बहाने सुनाकर एडमिशन नहीं दिया गया था। हो सकता है ये भी प्रशस्त की हुई राह पर चलने का नतीजा हो।


दूसरे या तीसरे दिन प्रोफ़ेसर बी बी सहाय हमें फ़िज़िक्स पढ़ाने आए। पढ़ाने क्या आए मोनोलॉग दागते हुए सौ पेज तक का सारांश बताकर निकल लिए। दस दिन के बाद (या कम से कम हमको तो ऐसा ही लगा) एक टेस्ट भी हुआ। और उस टेस्ट की उत्तर पत्रिका जब बंट रही थी तो सर ने हमें बुलाने से पहले हमारी तरफ देखा और ऐलान किया - “अरे! विश्वजीत के भाई हो जी? ये लड़का निकालेगा आईआई टी! दोनों भाई बहुत तेज है...”! बोलते बोलते उनकी नज़र पड़ी हमारे आन्सर शीट पर, दो स्वर्णिम अंडे वहॉं से दॉंत बिचका रहे थे।अब हम तो वैसे ही ऐसी परिस्थितियों से कितनी बार गुजरकर थेथर हो गए थे पर शायद सर के लिए पहली बार था, सो वो झेंप गए।


कहते हैं कि जीवन में हर किसी को अपना रास्ता चुनना होता है। और अगर आपको सुगम रास्ते मिलते जाएं तो क्या कहना! हाँ ये बात भी है कि वैसे रास्तों से गुज़रकर, सफ़र यादगार नहीं बन पाता। जब तक फिसले नहीं, गिरे नहीं, घुटने, कोहनी नहीं छिले तो सफ़र कहॉं! वैसे रास्ता तो हमारा सुगम ही था बस ये मील के पत्थर हमारे टीचरों ने (ज्ञात हो कि वे अवरोध कभी नहीं बने) बात बात पर चेता कर उसे यादगार भी बना ही दिया।

Wednesday, July 08, 2020

टेढ़ी नाक

डॉक्टर लक्ष्मी कांत सहाय भागलपुर के बहुत ही नामी ई एंड टी स्पेशलिस्ट हैं। फ़ौज से सेवा निवृत्त होने के कारण उनकी इज्जत दुगुनी हो जाती थी। वैसे तो बड़ी पोस्ट ऑफिस के पास जहाँ पर उनका क्लिनिक था वहां से वैसी कोई वाइब्स नहीं आती थी। हाँ, पर अंदर जाने पर और उनसे मिलकर ज़रूर लग जाता था कि उनका इतना नाम क्यों है। कड़क अंदाज़ और चचा चौधरी की तरह मूछें उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देते थे। उसी कड़क अंदाज़ में उन्होंने मेरी सारी हवा निकाल दी थी जब हम उनसे परामर्श के लिए पहुंचे थे। पढ़ते रहिये, जानने के लिए की क्या हुआ था। 

एन डी ए का रिटेन निकल जाने के बाद मेरे पास एस एस बी का आमंत्रण आया।और उसी दिन हम पहुंच गए साँतवे आसमान पर, महात्मा गाँधी पथ स्थित राजहंस होटल (भागलपुर स्टैण्डर्ड से वो सातवाँ आसमान ही माना जायेगा)। इस होटल के टॉप फ्लोर पर उस वक्त भागलपुर का बेहतरीन जिम था। और एन डी ए/एस एस बी की तैयारी के लिए सबसे ज़रूरी क्या है - निःसंदेह, सुडौल शरीर। ध्यान देने बात ये है कि हमने उस वक्त तक स्टैमिना का बस नाम सुना था; एस एस बी के लिए थोड़ा वो और ज़्यादा दिमाग के अलावा कुछ नहीं चाहिए। पर उस वक्त कौन हमें ये ज्ञान देता। दो साल पहले बोर्ड परीक्षा ख़त्म होते ही हम उस जिम के दर्शन करने गए थे और तब से आस लगाए हुए थे कि किस बहाने यहाँ दाखिला ले लें। और मौका आ ही गया था। 

जिम में खूब जमकर मेहनत-कसरत के बाद जब दिखाने लायक डोले बन गए तो हमने सोचा अब बाकी की तैयारी भी कर ली जाये। थोड़ी छानबीन, पूछताछ करने पर एक करीबी रिश्तेदार का पता मिला जिन्होंने एस एस बी इंटरव्यू दिया था। उनका चयन नहीं हुआ था तो क्या हुआ, आख़िर असफलताएँ ही सफलताओं के आधार स्तम्भ होते हैं। जाकर उनसे मिले और उनकी हिदायत गाँठ बॉंध ली - अक्खड़ बन कर जाओ, और नहीं कैसे होगा, नहीं तो सोचना ही नहीं है। तो वहॉं से पूरे दस लाख वाट का टर्बो चार्ज लेकर हमने सोचा थोड़ी शारीरिक जॉंच भी करवा ही लें।

और इस तरह हमने डॉक्टर सहाय से मिलने का मन बना लिया। निश्चित दिन बन, सँवरकर पहुँच गए उनके बड़ी पोस्ट ऑफिस के पास वाली क्लीनिक पर। कम्पाउण्डर ने हमारा नाम पुकारा और हमने डॉक्टर साहब के केबिन में घुसते ही ऐलान कर दिया कि एस एस बी इंटरव्यू के लिए जाने से पहले आपसे मशविरा लेना था। हमें लगा एक्स आर्मी डॉक्टर के सामने अपना अक्खड़पना भी टेस्ट हो जाएगा। डॉक्टर  साहब ने रुटीन चेक-अप के बाद एक किताब पकड़ा दिया। इस किताब में बहुत सारे रंगीन धब्बों के बीच अंक लिखे हुए थे - बाद में हमने जाना कि उस टेस्ट को इशीहारा टेस्ट कहते हैं। हमने भी धड़ल्ले से पन्ने पलटते हुए सारे अंक एक के बाद एक पढ़ दिए और दांत निपोरने लगे।

“बेटा तुम बेकार ही जा रहे हो”, इतना बोलकर डॉक्टर साहब ने उस  इशीहारा टेस्ट वाली किताब को अपनी तरफ़ पलटा और फिर हमें दिखाते हुए बोले, “तुमने एक भी सही नहीं पढ़ा है, तुम्हें कलर ब्लाइंडनेस है।”

अब हमें तो जैसे काटो तो ख़ून नहीं। ऐसा नहीं है कि उस बीमारी का नाम पहली बार सुना था। पर उस मनोदशा में डॉक्टर से ये सुनकर ऐसा लगा कि उन्होंने जैसे लिम्फोसरकोमा ऑफ दी इन्टेस्टाइन बोल दिया हो। वैसे उनका फ़िनिशिंग टच अभी बचा हुआ था।

“और तुम्हारी नाक तो टेढ़ी है, तुम्हें तो पहले ही छॉंट देंगे!”

अमुमन किसी के नाक पर टिप्पणी कर आप उसकी इज़्ज़त पर प्रहार करते हैं। कटी, छटी, टेढ़ी नाक बोलकर तो जैसे आप सब्जेक्ट को नंगा ही कर देते हैं। अक्खड़पन को वहीं ताक पर रख कर, अपने अपमान में पढ़े गए क़सीदे को समेटते हुए हम वहॉं से उठ चले। टर्बो चार्ज भी वहीं क्लिनिक में फुस्स बोल गया।

अपने डोलों के अचानक बढ़ते हुए बोझ में दबे, गहन चिंतन करते हुए हमें ये विचार कौंधा कि ये हमारी इज़्ज़त की द्योतक नाक, आख़िर टेढ़ी कब हुई होगी। हॉं वही एक कारण हो सकता है वरना इतनी सुडौल, खड़ी नाक का अचानक टेढ़ा हो जाना तो असम्भव ही है। 

सौगत बनर्जी और हमारी कोई पुश्तैनी दुश्मनी नहीं थी। वैसे तो दोस्ती भी नहीं थी पर क्योंकि एक ही बेंच पर बैठते थे तो जान पहचान अच्छी थी। अब किसी दिन जाने ग्रह नक्षत्रों को क्या सूझा, उन्होंने हमारे बीच मन मुटाव करा दिया। कुल मिलाकर दो घूंसों का एक अति संक्षिप्त बाउट हुआ और दोनों बॉक्सर अपनी लाल पड़ी हुई नाक सहलाते हुए अपने अपने कॉर्नर में बैठ गए। अब ये मुक्केबाज़ी याद आई तो उसका दर्द कुछ तीन गुना होकर उस दिन खूब टीस मारता रहा। अब इतना सब कुछ “नाकारात्मक” होने के बाद तो नतीजा हमें पता ही था, फिर भी हम इंटरव्यू के लिए गए थे और वहॉं से उस टेढ़ी नाक को कटवा कर वापस लौट आए थे। हॉं ये बात अलग है कि एस एस बी में अक्षम होने में हमारी टेढ़ी नाक का कोई योगदान नहीं था।

मुनीम बनाम साबू


उस दिन सुबह से ही ‘मुनीम’ को देखकर मन चिड़चिड़ाया हुआ था। वो हरकतें भी वैसी ही करता था। जैसे एल ओ सी पर अक्सर होता है कि थोड़ा सा हो हल्ला मचा कर, आगे पीछे करके पाकिस्तानी भाग जाते हैं, ठीक वैसे ही। और कुछ दिन पहले  ही हमारी जिरह हुई थी जो छोटी मोटी तो थी नहीं। सब मिल-जुलकर हमारे पारे को क्वथनांक की ओर धकेल रहे थे। 

हुआ ये था कि एक महीने में साईंस एक्ज़ीबिशन होने वाला था और क्लास सेवन बी से हम दोनों ने भी हिस्सा लेने का मन बनाया था। कुछ दिन पहले हाइड्रॉलिक पंप्स के बारे में पढ़ाया गया था। हम और मुनीम उस पर बातें कर रहे थे। उस दिन ही साईंस एक्ज़ीबिशन की नोटिस लगी थी और हर किसी को कोई बढ़िया आइडिया देना था। 

वैसे हम दोनों मेधावी छात्रों की श्रेणी में आते तो थे नहीं लेकिन अब आसमानी साज़िश ये सब थोड़े ही न देखती है। हमारे क्लास के दिग्गज लगे पड़े थे कुछ बड़े और बढ़िया आइडियाज़ में। और उस आसमानी साज़िश के तहत मुनीम और हम उस दिन साथ थे - शायद हमने होमवर्क नहीं किया था या वैसा ही कुछ जिसके कारण हमें पीछे बेंच पर खड़ा कर दिया गया था।पता नहीं कैसे हाइड्रॉलिक्स पर बात छिड़ी और हम दोनों ने मन बना लिया कि इस बार हम भी इस दिमाग़ी दंगल में अपना ज़ोर आज़माएँगे।

मुनीम ने उसी दिन से अनुसंधान शुरु कर दिया था और एक किताब से जानकारी उठाकर पंप के मॉडल की पूरी तरह से कल्पना कर ली थी। गूगल उन दिनों शायद अपने गैरेज में ही पनप रहा होगा और ऐसी अबोध परिकल्पना को साकार करने के लिए या तो किताबें, नहीं तो किसी टीचर से ग्रीन सिग्नल लेना पड़ता था। हमने सोचा पहले मॉडल ही बना लेते हैं और फिर वर्किंग मॉडल पर कौन ना नुकुर करता। किताब में वैसी विस्तृत जानकारी थी नहीं तो हमने ख़ुद ही मॉडल का परिमाण सोच लिया। एक फुट लम्बा सा कनिस्तर होगा, चौड़ाई मान लो दो बटा दो इंच, जिसका निचला हिस्सा पानी के टब में खुलेगा और उपर एक पिस्टन के साथ हैंडल उसमें फिट करवा लेंगे। बस हैंडल उपर नीचे करके दिखा देंगे कि उस एनर्जी को आप किसी भी चीज़ के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।

मुनीम ने कनिस्तर का काम अपने जिम्मे लिया और मेरे हिस्से आ गया पिस्टन का काम। अब ख़ुद पढ़ाई कर पिस्टन बनाने के लिए जब हम फ़िज़िक्स में घुस गए तो दिमाग़ ठनका कि अपनी क़ाबिलियत के परे है ये काम। झुंझलाहट और चिड़चिड़ाहट के मिश्रित भावावेश में हम चले मुनीम के घर। वहॉं पहुँच कर देखा कि मुनीम हमसे दो कदम आगे रहकर न सिर्फ़ कनिस्तर तैयार करवा चुका है बल्कि ऊपरी हिस्से में एक ड़बड़ा छेद भी करवा चुका है। चूँकि ये तो प्लान में था ही नहीं हम भड़क गए। आदमी जब अपनी ख़ामियों को, अपनी सीमाओं को स्वीकार नहीं कर पाता तो गुस्सा उसका सबसे सरल निकास होता है। हमारे साथ भी वही हुआ। बिना मुनीम का तर्क सुने हम उस पर बरस पड़े। फिर क्या, काफ़ी देर तक अहं, बेतुके बहस में उलझ कर चिल्लाता रहा। कभी कटाक्ष, कभी कर्कश शब्द टकराते रहे, बस गाली गलौज ही बाकी रह गया था। एक दूसरे की समझ और बुद्धिमत्ता को कुछ देर कोसने के बाद हम वहाँ से निकल पड़े। और इस तरह से प्लान विफल हो गया और हमारी दोस्ती में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान सरीखा खटास आ गई।

उस दिन मुनीम किसी बात को लेकर खिसिया हुआ था और हमारे दर्शन ने आग में घी का काम किया हो शायद। बस हर छोटी बात पर कुछ नोक-झोंक होने लगी। उपनामों से हर किसी को चिढ़ होती है और मुनीम को अपने नाम से ख़ासा चिढ़ थी, ठीक जैसे मुझे अपने दूसरे उपनाम 'विक्स' से। उस दिन मुनीम ने ये महापाप कर ही दिया और क्लास के दूसरे छोर से ‘विक्स’ चिल्लाता हुआ भागा। इतनी देर से छिटपुट गोलीबारी के बाद ये तो जैसे उसने हॉविट्ज़र ही दाग दिया था। हम दौड़ कर उसकी ओर लपके, मुनीम का गला पकड़ कर उसे दीवार पर टीका दिया। फिर ख़ुद ही सहमते हुए उसे छोड़ दिए। हुआ ये होगा कि हमने हाथापाई तो यदा-कदा ही की थी तो इतना भी साहस नहीं बन पड़ा कि किसी को घूँसा रसीद दें। फिर प्रिंसिपल की खजूर की छड़ी और उनके गाउन की रस्सी की मार भी यकायक दिमाग़ में कौंध गई होगी और हमने मुनीम को स्वत: छोड़ दिया होगा।हालाँकि जितना असर होना था वो हो गया था। मुनीम चुपचाप कुछ देर सुबकता रहा और फिर कुछ दिनों तक हम एक दूसरे के सामने भी नहीं आए।

कुछ कहानियाँ जहॉं खत्म होती हैं किंवदंती वहॉं से शुरु होती हैं, खासकर अगर प्रत्यक्षदर्शियों की कल्पना असीम हो। किंवदंती ये हो गई कि मुनीम को विक्स ने दीवार पर दो फ़ीट उपर टांग दिया और धमकाया कि फिर उस उपनाम से उसे कभी नहीं पुकारे। ऐसी माचो इमेज अगर कम से कम ताकत व्यय कर मिले तो कोई सच क्यों बयान करे। कम से कम स्कूल के दिनों के लिए इसका फ़ायदा तो बहुत हुआ। इसमें कुछ योगदान इस मसालेदार वाक़या का था, कुछ हमारे कद और कुछ सर मुंडवाने की हमारी फ़्रीक्वेंसी का जिससे हमें एक नया उपनाम मिला - साबू।

Monday, July 06, 2020

One third of a Halley’s connection

Battiyan bujha do...arre batti toh bujha de yaar”. Standing in the school’s morning assembly queue I could see the shock waves that these lines created; ruffled some very serious feathers and definitely had attracted quite severe repercussions, the details of which were never made public. 

But was the singer perturbed? No, not to the least!

He was immune to all this - after all he had scored a 99 in Maths in the board exams (this was 1989-90, way before ICSE had reset its minimum score to 90) and had already graduated out of the school, officially. That day that plucky teenager introduced us to something that we all could feel but didn’t have a term for, then. The term is spelled chutzpah which I learnt much later and after a few more years of existence, I learnt how it is pronounced. Well he also introduced me, at least, to the music director for all moods, Pancham.

And thence two names were forever etched in my subconscious - RD Burman and Navin Sinha! The singer that morning was His pluckiness, Navin Sinha and the original composer and singer of the song was His craziness, Pancham.

Satte-pe-Satta has since then been one of my favorite movies and each time the song Pyar hamein plays, I am transported to that chutzpahdik summer afternoon. That song opened a vista to Pancham’s absolutely incredulous range of music. The movie has a note that is a testimony to Pancham’s musical experiments and his craziness. There’s a character in the movie called Babu (Amitabh Bachhan in a double role) and his introductory scene has that spine chilling music. During my research on Pancham (yes I do research which are never related to my so called knowledge area), I came across a lady’s interview who had “sung” that. She was asked by Pancham to gargle and produce that high pitched sound. His craziness had used several such “instruments” to produce the sound that he had envisioned. Whistling in empty bottles, comb and broom, champagne glasses and percussion instruments from far off African countries are part of Pancham’s legend now.

There is lot of literature around Pancham and his team of musicians. The Lords, Mullans and some who went to explore their other special skills - like Bhupinder moved on from an instrumentalist/guitarist to an acclaimed singer, Uttam Singh composed music under Yash Chopra banner, et al.

However, after that hugely impressionistic day I had made little effort to trace the man who had introduced me to Pancham. And this incommunicado can be assumed to be by default, as is the case with me usually. Mr Navin Sinha, though reappeared, as a twist of fate, on 75th anniversary of Pancham, as a post on my school group on Facebook. Probably still in love with numbers, he had posted a mathematical puzzle. When I read the post, I was meandering down from the hills of Munnar, in a rented car with my better half, surfing FB for a few reasons. The major ones being to divert D’s attention from the looping roads, which she abhorred, and re-instil her interest in mathematical puzzles (the latter is in her genes, by the way).

And so while our car sped down the mountain roads, D was completely immersed in the puzzle, aloof of how quickly we were descending. By the time we touched the foothills she without any emotions presented the solution which I duly posted on the FB group (yes this too is a regular trait of mine, if I am unable to solve puzzles, I copy the solution). With the response, I added a postscript asking if he was the same Navin Sinha who had made me live that feeling of chutzpah. He responded affirmatively without any mention of whether the solution was correct - the pluckiness was in tact, it had to be him!

That appearance of Mr Sinha on Pancham’s platinum jubilee made me really wonder at the situation. A twist of fate is the only probable explanation, that brought multiple elements into play and left me wondering whether Pancham, Mr Sinha and I have a quantum connection probably that realigns itself every 25 years or so!

Circa 1989 and then 2014, my maths (which by the way, boasts of a score just two less than what Mr Sinha had scored) says 2039 is the next year of alignment - Halley’s anyone?

Saturday, June 20, 2020


फिर हाथ सलामी में उठे
फिर कई ऑंखें रोईं
फिर सीने ठोके गए
पुष्पांजलि की आड़ में कितने छुपे
हुआ खूब हल्ला
बहिष्कार, बहिष्कार!

चार दिन बाकियों ने मनाया शोक
फिर इतिहास ने चादर काढ़ी,
मौत आँकड़े बन गये
हादसा बन गई तारीख़।
भभकती कभी कभी ये चीत्कार 
पलटवार, पलटवार!

जिनसे उनकी दुनिया छिन गई
फेर कर देखो उनसे ज़िंदगी
दिलों के टीस में दबी 
दम तोड़ती ये चीत्कार 
क्यों व्यर्थ अब यलगार!

Friday, June 05, 2020

नानीघर

मुझे वहाँ की सर्दी याद नहीं। शायद सर्दी में हुई एकाध अप्रिय घटनाओं ने मन खट्टा कर दिया हो। हॉं गर्मी की दुपहरियॉं बड़े अच्छे से याद हैं।

सभी भाई बहन कभी ओसरा, कभी किसी कमरे में बिछे हुए गद्दे पर हीही, खीं खीं करते हुए और बीच बीच में किसी बड़े के “ऐऽऽऽऽ”, “ह्मममममममम” बहुत स्पष्ट याद हैं। 

पकते हुए मसूर दाल की महक उन दुपहरियों में ख़ुशबू घोल देती है। यादों के साथ वहॉं के तो दाल, भात, भुजिया का स्वाद भी ज़बान पर आ ही जाता है। मटन पकने की ख़ुशबू या यूँ कहें कि एकाध सेर, लहसून प्याज़ और मसालों की ख़ुशबू भी उसमें घुलमिल जाती है।

वहॉं के शब्द और उन शब्दों का प्रयोग भी विरल था। जब भी जाते, हर बार एक नया ही शब्द सीखने को मिलता था जिसका अर्थ उसके सही मायनों से कोसों दूर -  गैसहड्डीभोचरबाय दी बे।

आपकी याददाश्त हर घटना, हर मंज़र का एक चित्र संजो कर रखती है। खुशी का ख़ाना अलग, दु:खी यादें अलग और ये चित्र अपने अपने ख़ाने में सुरक्षित, महफ़ूज़ रहते हैं। बाद में कितनी भी बार उस जगह पर घूम आइए, अलग मूड में भी तब भी वह चित्र शायद ही बदलती है। कभी किसी नौस्तैलजि्क शाम आप उन घटनाओं को याद करें तो वही सुरक्षित चित्र दिखाई देते हैं। खुशी वाले थोड़े और ख़ुशनुमा और दु:ख वाले थोड़े और उदास।

वहॉं बदलाव तो बहुत हो गया था। बहुत दिन बाद जाने का मौक़ा भी तो मिला था। इस बार जाकर देखा तो याददाश्त के ख़ाने की तस्वीर से सिर्फ ऑंगन ही मेल खाता मिला। न वो ओसरा था ना ही वहाँ के लोग। वो चारों तरफ के ऊँचे घर जैसे उस चित्र को मिटाने में लगे थे। बस भाग जाने का मन हुआ। हम उधर संघर्षरत थे ज़िंदगी की रेस में और इधर ईंट दर ईंट चित्र बदल रहा था। हीही, खीं खीं की उमर कब पीछे छूटी और कब हम बड़े हो गए पता भी न चला।

Saturday, May 30, 2020

योगेश - इत्रों के शब्दकार

पिछले तीन - चार दिनों से बैंगलोर में हर शाम बारिश हो रही है।  सुबह हल्की ठंड सी रहती है और एक हल्की सी ख़ुशबू । आज सुबह का भी नजारा वैसा ही था और अपनी ही बिल्डिंग में कोई वॉयलिन की प्रैक्टिस कर रहा था। नैपथ्य में संगीत भी अक्सर कुछ मधुर यादें, कुछ पुराने सहेजे हुए दृश्य को बार बार उजागर कर देता है। ऑंखें मूँदने पर जैसे वो सब फिर से सजीव हो जाते हैं। फिर संगीत हो तो कुछ पसंदीदा फिल्मों के दृश्य और गीत भी मिश्रित हो ही जाते हैं। मेरी पसंदीदा गीतकार-संगीतकार जोड़ी के गाने भी ऐसे ही मौसम के लिए होते हैं।

जैसे फिल्म छोटी सी बात - दृश्य: कर्नल जूलियस नगेंद्र नाथ विल्फ्रेड सिंह से मदद के लिए अरुण प्रदीप बड़े ही दुर्गम रास्ते से होते हुए उनके पास पहुंचता है। कभी भी खंडाला का ज़िक्र होता है तो ज़ेहन में एक बार ये दृश्य तो ज़रूर आता है - स्टीरियोटाइप है पर आदतन ऐसा हो ही जाता है।

उस फिल्म के सारे गानों में एक टीस सी है! ऐसे गाने एक और स्टीरियोटाइप्ड गर्मी की दोपहरी और रेडियो पर बजते ऐसे गाने की याद को ताज़ा कर देते हैं।

“ वहाँ मन बावरा आज उड़ चला
जहां पर हैं गगन सलोना सावला
जाके वही रख दे कहीं मन रंगों में खोल के
सपने ये अनमोल से
यह दिन क्या आये लगे फूल हंसने
देखो बसंती बसंती होने लगे मेरे सपने
यह दिन क्या आये लगे फूल हंसने ।”

गीत योगेश के और संगीत सलील चौधरी का । कभी कभी तो यहाँ तक होता है कि अगर पता भी न हो तो ऐसा लग जाता है कि इस गीत में इनका ही जादू है। आनन्द के गाने या रजनीगंधा के गाने हों चाहे छोटी सी बात के गाने। योगेश आम आदमी की भी भाषा में उतने ही सरलगीत लिखते थे और शायद इसलिए उनके गाने ऐसे ही फ़िल्मों के लिए सटीक बैठते थे।

नीरज, गुलज़ार सरीखे गीतकार थे योगेश। शब्दावली उनके ही टक्कर की - हर शब्द गीतमय और जैसे हर गाने में एक गहरी फिलॉसफी। इनके कई गाने तो जैसे अपने साथ एक ख़ुशबू लपेटे रहते हैं। मिली का ये गाना - 

बड़ी सूनी सूनी है, ज़िंदगी ये ज़िंदगी
न कर मुझसे मन मेरे दिल्लगी ये दिल्लगी।

हर बार सुनता हूँ और हर बार जैसे शराब की बू और सिगरेट के धुएँ की घुटन महसूस करता हूँ। रजनीगंधा के गानों में, हर शब्द में उसफूल की ख़ुशबू पिरोई हुई है।

अपने ही लिखे शब्दों की तरह कल गीतकार योगेश पंचतत्व में विलीन हो गए-

कभी देखो मन नहीं जागे
पीछे-पीछे सपनों के भागे
एक दिन सपनों का राही
चला जाये सपनों से आगे कहाँ।

Thursday, April 30, 2020

आप लाफ़ानी

इरफ़ान ख़ान नहीं रहे। ख़बर पचने में थोड़ी देर लगी । और एक बार जब पची तो जैसे ख़्यालों की एक लम्बी कतार बन गई।

लगा जैसे अभी उसी बेपरवाह अंदाज़ में एक आवाज़ आएगी -
“क्या सोच रहे हो भैया?”

घरघराती हुई आवाज़ और ऑंखें ऐसी कि एक बार देख लो तो जैसे एकदम अन्तर्मन में छप जाए।

लोग कहते हैं उनकी ऑंखें बोलती थीं लेकिन ऑंखें बंद कर सोचता हूँ तो उनके द्वारा निभाए कितने किरदार और उनके संवाद कानों में गूंजने लगते हैं। और ये वाला तो ख़ुद हमने ही कितनी बार बोलकर घटिया मिमिकरी का नमूना दिया है-
“बीहड़ में बाग़ी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में!”

मैंने इरफ़ान को एक बार सजीव देखा था, हावड़ा स्टेशन पर। हावड़ा स्टेशन तो वैसे भी हमेशा भरा रहता है पर उस रोज़ भीड़ कुछ अलग ही परवान पर थी। उस भीड़ को बौना करता हुआ उनका ऊँचा, लम्बा कद, तनी हुई रीढ़ और फिर बस ऑंखें!

वहॉं नेमसेक फिल्म की शूटिंग चल रही थी। उस वक्त हमारा फ़िल्मी ज्ञान बहुत ही सीमित था; मन:स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि फ़िल्मों की ओर रुझान होता। इंजीनियरिंग का पहला साल रहा होगा और हम सेमेस्टर ब्रेक में घर जा रहे थे।

वैसे उनके आसपास दो और लोग थे जिनकी ऑंखों के बारे में एकाध लेख लिखा जा सकता है। एक थीं फ़िल्म की निर्देशिका मीरा नायर - जिनकी ऑंखें ऐसा प्रतीत होती हैं कि जबरन किसी ने खींच कर बड़ी कर दी हैं और दूसरी थीं तबु!
इन तीनों में सबसे ख़ूबसूरत आँखें तो निस्संदेह तबु की थीं पर उसी रोज़ मेरे मनस्पटल पर इरफ़ान की ऑंखें छप गई।

असर ऐसा था कि नेमसेक दो बार देखी। एक सीन हर बार ऑंखें नम कर जातीं - जब इरफ़ान का किरदार अपने बेटे गोगोल को लेकर एक पथरीले तट के बिल्कुल छोर तक चला जाता है और पॉकेट टटोलते हुए कहता है कि कैमरा ही भूल गया; फिर गोगोल से कहता है कि तुम इस पल को याद रखना। इतनी सहज एक्टिंग है इरफ़ान की कि आपको खोया हुआ सा कोई अपना याद आ जाता है।

फिर लन्चबॉक्स का वो सीन जिसमें एक चिट्ठी के ज़रिए इरफ़ान अपनी दोस्त को बताते हैं कि कैसे ऑफिस निकलते वक्त, दुबारा अपने ही बाथरूम में घुसने पर वहाँ की गंध उन्हें अपने दादाजी की याद दिला जाती है। उस गंध को महसूस करने के बाद उनकी ऑंखें इस सीन में क्या भयंकर काम कर जाती हैं। इसी फिल्म में वहीं ऑंखें जब नाक पर सरके हुए चश्मे के पीछे से देखती हैं तो लगता है कि एक्टिंग की किताबों में कुछ और अध्याय जोड़ने पड़ेंगे।

अभी तो काम सर पर नाच रहा है। पर जैसे ही ख़बर सुनी, लगा जैसे कि सब फेंक फाक कर नेमसेक, हासिल, पान सिंह, मक़बूल,  लन्चबॉक्स, हैदर बैक-टू-बैक देख लें। और देखेंगे तो ज़रूर। कुछ खटक सा रहा है, एक टीस भी है। पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि कोई अपना जान पहचान वाला गुज़र गया हो जैसे।
क्या दद्दा! बहुत जोर भगे पर रेस बीच में ही छोड़ दिया!

Thursday, March 12, 2020

छल

घ्राण पर तुम मत देना ध्यान,
कुछ भी सूंघ बहक जाएगा
भूत भविष्य में भटकाएगा;
ताक पर रख देगा वर्तमान 

नैनों की भी मत सुनना तान,
प्रत्यक्ष तो समझ जाएगा
परोक्ष अनदेखा कर जाएगा;
करता रहेगा तुम्हें परेशान।

नैनों का ये पुराना काम,
कोई मीत जो छूट जाएगा
ये कल-कल अश्रु बहाएगा;
असम्भव इसको देना आराम।

इन्द्रियों में सबसे छलिया कान,
जो  सुनना वो भी सुन जाएगा
राई का पहाड़ बनवाएगा;
सुगम रस्ते भी 
नहीं रहने देगा आसान।

स्वाद से मिलेगा तुम्हें बड़ा कड़वा ज्ञान,
लत नए लगवाएगा,
बादशाह से फ़क़ीर बना जाएगा;
छूटेगा नहींचाहे छूटे प्राण!

मन के चौकीदार हैं ये
तैनात लिए तीर कमान,
एक बहलाएगा
दूसरा फुसलाएगा
बुद्धि पर पट डाल
प्रपंच से करेंगे हैरान।
अडिगस्थिर मन से
लेना इनसे काम
कितना भी विचलित करें
धैर्य ही बस इनका समाधान।

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...