Tuesday, November 21, 2023

उम्मीद

उम्मीद समर
उम्मीद भँवर 
उम्मीद सफ़र 
उम्मीद ही हल।

उम्मीद जीवन
उम्मीद किरण 
उम्मीद रंग
बस उम्मीद ही संग।

उम्मीद राग
उम्मीद से आग
उम्मीद विवाद
उम्मीद ही वाद।

उम्मीद पहल
उम्मीद सबल
उम्मीद के आगे
व्यर्थ जिरह।



उम्मीद की एक और लड़ी- (सधन्यवाद पापा)

उम्मीद है रंग
उम्मीद तरंग
जीवन का यह प्रसंग
उम्मीद चाह
उम्मीद राह
जीवन का यह प्रवाह
उम्मीद ही रीति 
उम्मीद ही नीति 
उम्मीद से प्रीति

Thursday, October 19, 2023

चाय बहाना है

चाय बहाना है
दिनचर्या सुनाने का
किसने, किससे, क्या कहा
बताने का
शीत युद्ध में
थोड़ी गर्माहट लाने का।

चाय बहाना है
सुनने सुनाने का
कैसा रहा आज
और ट्रैफ़िक वाली बात
कितने कॉल्स आज रात
रूटीन सी दिन को
स्पेशल बनाने का।


Thursday, August 10, 2023

आ भी जाओ कि मन नहीं लगता है

वैरायटी की कमी है
हर धुन अब शोर लगता है
ख़ुशबू की परत नहीं उड़ती,
सब बड़ा बोर लगता है
टिप्पणी के बिना कपड़ों का चयन
अब एक चोर लगता है,
रंग फिर नीला है चढ़ा
बेरंग शाम और भोर लगता है।
अदरकी चाय बनाना भी
दिलोदिमाग़ पर लोड लगता है।
 भी 
जाओ
कि अब मन नहीं लगता है।

Wednesday, July 05, 2023

अब वो हाथ छुड़ाना सीख रही है

चीख चिल्लाकर

कभी झुंझलाकर,

हाथ खींच कर 

कभी झटक कर,

ख़ुद अपने 

रास्तों को चुन रही है,

अब वो हाथ छुड़ाना

सीख रही है।


समझ के अगले स्तर पर

अपने आप को आँक रही है,

नई नज़र से

बेफ़िकर सी

हर कदम चुनकर

स्वयं को समझ कर रही है,

अब वो हाथ छुड़ाना

सीख रही है।


आत्मविश्वास की

पहली सीढ़ी चढ़कर,

अपनी मंज़िल,

अपना सफ़र 

आप ढूँढ रही है,

अब वो हाथ छुड़ाना

सीख रही है।

Monday, July 03, 2023

फिर छिड़ी बात…

ज़िन्दगी की अगली राउंड के लिए, परिवार में एक और पलायन की ख़बर आई, गंतव्य- लखनऊ। उम्र के उस पड़ाव से गुज़रे दो दशक से ज़्यादा हो गए हैं पर ऐसी घटनाएँ हमें फिर से वहीं गुमटी नंबर दो के त्रिगांधी चौक पर ले जाकर खड़ी कर देती है। कभी साइकिल कभी पैदल ही एक कोने से दूसरे कोने तक भाग दौड़ होती थी। पर उस फ़र्राटे से भागते दिनों कि चर्चा फिर कभी, आज ज़ेहन में फँसे कुछ जद्दोजहद को समर्पित ये ब्लॉग। 


लखनऊ - अवधी कल्चर का एपिसेंटर, जहॉं नवाब वाजिद अली शाह के ज़माने में जो विलासिता का दौर चला वो आज तक छूट पाया। वो कहते हैं कि आदत तो बाप-दादा से मिलती है और भाषा दोस्तों और पड़ोसियों से। अब मीर रौशनअली और मिरज़ा सज्जादअली के वंशजों से और क्या अपेक्षा रख सकते हैं - बिछाओ बिसात और दौड़ाओ काग़ज़ी घोड़े; फिर चाहे डल्हौज़ी अवध का विलय ही क्यों कर रहा हो। इत्र हो, उबटन हो या चिकनकारी कुर्ते हमने सब आज़माया है पर वहाँ कभी जाना नसीब नहीं हुआ। विलासिता की बात करें तो भागलपुर लखनऊ का ही चचेरा, मौसेरा निकलेगा। वही पुरानी रईसी के क़िस्से, वही तीतर बटेर सी लड़ाई, वही बनारसी और मीठे पत्ते के छप्पन गुणों की व्याख्या। 

अब तो ख़ैर बैंगलोर में बाईस साल से धड़ बसा लिया है लेकिन फिर भी कर्म से जन्म नहीं बदल पाए हैं। बात अगर महीन कारीगरी वाली हो तो हम एकाध नुक़्ताचीनी कर ही डालते हैं।


जद्दोजहद यहीं से शुरु हुई। कई दिनों से दिमाग़ में यह बात कुलबुला रही थी, ख़ासकर उस दिन जब तीन किलो मालदा और दो किलो जर्दालु आम मँगवाया था। ज़ुबान पर स्वाद चढ़ा नहीं कि फिर से हम पहुँच गए दो नम्बर गुम्टी के त्रिगांधी चौक पर। कहाँ ये रत्नागिरी और हापूस, मालदा से टक्कर लेंगे। जो बात वहाँ रहकर नहीं समझ पाए थे, ये पिछले दिनों के डोपामाइन के अमिया डोज़ ने क्लियर कर दिया था - चारे की लालच में गाय किसी भी खूँटे से बंध तो जाएगी लेकिन घर की दूब का स्वाद कभी नहीं भूलती।


हर छोटी बात जिसको हम अनदेखा कर देते थे आज दिमाग़ को कौंधा रही थी। अब जो बात बुड़बक, बकलोल में है वो ऐक्सेन्ट वाली स्ट्यूपिड में कहाँ ! यहाँ रहकर बहुत पॉलिश घिस लिया था पर इस चिकनाई के चक्कर में खुरदरा अक्खड़पन कहीं सो गया। पिछले बाईस सालों सेगोत्तिलासीख कर, जो भाषा नहीं सीख पा रहे हैं, उसमें कहीं कहीं इसी अक्खड़पन का दोष है। ऐसी कन्फ्यूस्ड मानसिकता से यहीं गोते लगा पा रहे हैं और ही वहाँ के गंगा स्नान का लुत्फ़ उठा पा रहे हैं।


एक और मोटी परत जो हमारे उपर चढ़ी है वो है अंग्रेज़ी की। बाह्य आडम्बर के लिए जो सोफ़िस्टिकेशन चाहिए वो तो अंग्रेज़ी की बैसाखी दे जाती है। लेकिन भाषा तो हमेशा से एक मिथक ही रही है, आपके चरित्र का शायद दो-चार आना! जहाँ स्तर ऊँचा करना हुआ बस दाग दिया शब्दों का मायाजाल। और आपने ज़रा सी अच्छी अंग्रेज़ी बोली कि आसपास वालों के नज़र में आपकी इज़्ज़त चौगुनी हो गई- हाय रे दो सौ साल की ग़ुलामी!


वैसे हम इस उधेड़बुन में फँसने वाले पहले किरदार नहीं है। बिरहा रस तो भोजपुरी गीतों की आत्मा थी, जो आजकल बस फुहड़पन का सस्ता बाज़ार बना हुआ है। पूर्वांचल के मज़दूर जो कैरिबियन, मॉरीशस और जाने धरती के किस किस कोने में गए। कुछ लौट गए, कुछ वहीं बस गए। उनके पीछे आस में उनके घरवालों के पास बस यही बिरहा के बिदेसिया गीत एक सहारा थे।


शब्दों का हेर फेर देखिए- परदेसिया जो बाहर से आता है, जैसे कि परदेसियों से अँखियाँ मिलाना वाला; और बिदेसिया जो देश से निकल गया है और शायद वापस नहीं लौट पाएगा। और आज के ज़माने में हम जैसे जो देश में होकर भी यहीं के हो पाए वहाँ के - जिन्हें छठ का डलिया-सूप नसीब होता है और ही बिसी बेले बात सुहाता है। बस एक आस है शायद कि किसी दिन लौट चलेंगे, जो हमें भी पता है कि एक झूठी आस है। शायद इसलिए इस गीत के बोल मन में एक टीस भर देते हैं - “चल उड़ चल सुगना गँउवा के ओर, जहाँ माटी में सोना हेराइल बा।

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...