Wednesday, November 04, 2020

तिल का ताड़

हिन्दी में भी, अन्य भाषाओं की तरह, एक शब्द के कई अर्थ होते हैं। ऐसे अनेकार्थी शब्द अलंकारों में बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं, मसलन- 

“कर का मनका डारि कै, मन का मनका फेर!”

अब कबीर के दोहे में तो जाने कितनी परतें होती हैं। हर दिन एक नया अर्थ ही मिल जाता है। और जिस तरह ज़िंदगी की गिरहें खुलती हैं उसी तरह इन दोहें की परतें। अनेकार्थ शब्द तो बस एक पहलू है कबीर के दोहों का।

ये तो हुई आध्यात्म की बात। फूहड़पन में भी ऐसे अनेकार्थी मिल ही जाते हैं। जैसे कि एक शब्द है - ताड़। इसके एक अर्थ की नुमाइंदगी तो हर गली नुक्कड़ पर रोडसाईड रोमियोज़ देते रहते हैं और दूसरा अर्थ भी सर्वज्ञ है, जैसे -

“बड़ा हुआ तो बढ़िया है, जैसे ताड़-खजूर,

चढ़ने में मज़ा आए, फल मिले भरपूर”।

उपरिलिखित दोहे का पूरा क्रेडिट जाता है बचपन के हमारे मित्र “झा ब्रदर्स” को! ये दोहा उनका बोर्ड परीक्षा के बाद मेरे लिए फ़ेयरवेल गिफ़्ट था।

तो इसी शब्द के दोनों अर्थों के साथ फूहड़पन की लपेट में एक बार हम भी आ गए। बात उन दिनों की है जब रुड़की विश्वविद्यालय के लिए अलग से फ़ॉर्म भरना होता था और उसको फिर रजिस्टर्ड पोस्ट से भेजना होता था। इसी काम को अंजाम देने, सुबह दस बजे हम नहा धोकर पहुँच गए बड़ी पोस्ट ऑफिस।  पीक ऑवर रहा होगा, क्योंकि कांउटर पर कुछ दस-बारह लोग हमसे आगे खड़े थे और हमारे पहुँचते पहुँचते तीन चार हमारे पीछे। अब तो इतनी बड़ी लाइन लगती भी न हो, क्योंकि आजकल तो सब कुछ ऑनलाइन ही हो जाता है। 

ऐसी लाइनों में अकसर वो साईड एंट्री वाले लोग प्रयासरत रहा करते थे। ‘वी आई पी’ बन नहीं पाए तो क्या हुआ, ऐसी टुच्ची लाइनों के लिए वो ख़ुद को ‘वी आई पी’ ही समझते थे - लाइन को नज़रअंदाज़ कर सबसे आगे पहुँच जाने वाले। तो अगर आप फैल कर नहीं खड़े हैं तो आपकी बुड़बकी है - आइए फिर लन्च के बाद!

बस इसी इंच को माईल नहीं बनने की जद्दोजहद में हम अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे कि अचानक हमारे पीछे हो हल्ला मच गया। गहमागहमी में हमने देखा चार-पॉंच लोग एक फ़िरंगी महिला के साथ स्पीड पोस्ट वाले काउंटर की तरफ़ बढ़ रहे हैं। वो कम से कम छह फुट की तो ज़रूर रही होंगी और साड़ी के कारण और भी लम्बी लग रहीं थीं। स्पीड पोस्ट का रेट रजिस्टर्ड पोस्ट से कम ही होता हैऔर इसलिए भीड़ भी साधारणतः वहॉं ज़्यादा होती है। पर उनके वहॉं पहुँचते ही भीड़ लाल सागर की तरह पट गई और दोनो तटों पर कतारबद्ध जनता बिना पलक झपकाए टारगेट लॉक कर तैनात!

ये तो बिलकुल ही शहर की गरिमा पर सवालिया निशान था। विदेश से आई मेहमान को कम से कम ऐसे तो नहीं ताड़ो भाई!

वैसे कुछ देर में एक अलग ही रंग देखने को मिला इस वाक़ये का। लेकिन वहॉं पहुँचने से पहले ऐसे नमूनों का चरित्र चित्रण बहुत ज़रूरी है। ये लोग शायद राजकीय परंपरा अनुसार विदूषकों के वंशज रहे होंगे। और चूँकि भागलपुर ऐतिहासिक अंग प्रदेश के नाम से विख्यात है तो यहॉं विदूषकों की कमी नहीं है। इनकी काबिलियत ये है कि ये राह चलतों पर टिप्पणी कर आगे बढ़ जाते हैं । मतलब हमने अपना काम कर दिया आपको हँसी आई तो हँस लीजिए । ऐसे विदूषक बैंक काउंटरों पर, बिजली बिल वाली लाईनों में या पान दुकान पर अकसर दिख जाते थे। और अब ऑनलाइन युग में कमेन्ट कर डिलिट करने वाले ऐसी श्रेणी में आते हैं।

कुछ देर तक छटपटाने के बाद हमारे ठीक पीछे खड़े विदूषक से रहा नहीं गया और अपने अंदाज़ में उन्होंने एक ‘रिटोरिक’ दागा - “विदेशी हैं और देखिए साड़ी पहन ली हैं।” अब या तो ये सवाल पूरी लाइन से था या फिर वो बस अपनी मन की बात कह गए। इससे पहले कि वो अंग-रंग की कोई टिप्पणी करते हमने उनको करीबन टोकते हुए हामी भर दी।

“अलबत्त लम्बी है लेकिन, ताड़ गाछ एकदम!”, वो नहीं रुकने वाले थे।

मुस्कान देकर हमने फिर हामी भरी।

अब जब माहौल जम गया तो उन्होंने हमको और हमारे कद को लपेटे में लेकर पंच लाइन दागा -

“एगो आप ही भागलपुर का इज़्ज़त बचाए हुए हैं यहॉं!”

आगे के दस-बारह, पीछे के चार-पॉंच और लाल सागर की तट पर वाली जनता, सबने एक बार तुलनात्मक दृष्टि हम पर डाली और सहमति में सर हिलाया। बस वो लोग एक विजयी चीख मारते मारते रह गए या कम से कम हमें तो ऐसा ही लगा। पर पूरे भागलपुर की इज़्ज़त- ये थोड़ा ज़्यादा हो गया! कुछ इतनी सारी नजरों का हमारी तरफ मुड़ना और कुछ ऐसी ज़िम्मेदारी का एहसास, हम बस चेहरा लाल किए अवाक् से खड़े रह गए।

बेकर्स डज़न

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