Thursday, June 14, 2018

परदेस सा अब भी लगता है

बहती पछिया, पूरवैया भी
जाने मन क्यों नहीं तरता है
खुशबू अनजानी लगती है
कुछ तो अधूरा सा लगता है।
होने को आए अब दो दशक
पर जाने क्यों यहॉं 
परदेस सा अब भी लगता है।

कुन्बा भी बस गया है अब तो
सुविधाओं का अम्बार सा लगता है,
कमी की कमी खटकती है
पैर जमने से क्यों डरता है?
कुछ फंसा रह गया है वहॉं
आवाज़ जो देता रहता है।

एक तान छठ के गीतों की
आरी सी चला जाती है
पहले से आहत इस मन को
और विक्षिप्त कर जाती है।
खान पान अपना लिया है हमने
बोली से जाने मन क्यों कतराता है
होने को आए अब दो दशक
पर जाने क्यों यहॉं 
परदेस सा अब भी लगता है।

कोई जतन करो ऐ युगपुरुषों!
जुगत तो अब कोई लगाओ
पीड़ बिछोह का तुम क्या जानो
क्या छूट गया तुम क्या जानो
उन्मूलन का दर्द तुम क्या जानो?
जब जब बात छिड़ती जन्म मूल की
माथे पर बल चढ़ जाता है,
मन निरस्त्र, नि:शब्द होकर
मसोसकर रह जाता है।
जड़ से आखिर दूर रहकर,
वृ़क्ष कब तक हलहलाता है!





Sunday, June 03, 2018

दिन ढला, 
ओढ़े चादर काली
ढली शाम,
मन विचर रहा अब भी
कहॉं मिले विराम, आराम।

बहुत जोर 
आज मन भागा था
पैर जो दिखते 
तो कटे फटे 
घाव दिखते शायद!

सवाल बहुत थे आज 
कहॉं भाग रहे हैं
कोई हांक रहा है
या बस सरपट भाग रहे हैं?
किस कल के लिये
शूल चुन
शैया बुन रहे हैं?

उधेड़बुन भी है बहुत
रूक जाएँ
पलट जाएँ
या बदल लें राह?
दौड़ आधी और बची है
न कोई वाह
खतम सब चाह
थक कर चूर हो गए, आह!

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...