Saturday, October 08, 2022

गुम नाम




पिछले महीने भूपिन्दर सिंह का देहांत हो गया। बड़ी बड़ी ऑंखों पे घने परदों सी पलकों वाले भूपिन्दर जिनको लोग प्यार से भूपि जी भी कहते थे। 

बहुत ही यूनीक गहरी, अनुनासिक आवाज़ के मालिक भूपि जी सत्तर के दशक में मिडिल क्लास की आवाज़ बन गए थे- “एक अकेला इस शहर में” से लेकर “ज़िन्दगी सिगरेट का धुआँ”। शायद एक्सपेरिमेंटल फ़िल्मों के लिए उनकी ही आवाज़ की ज़रूरत थी। 

अगर आप “टी वी एफ” के फ़ैन हैं तो आपने नोटिस किया ही होगा कि “परमानेन्ट रुममेट्स” में उनके एक गाने को क्या ज़बर्दस्त सेट किया गया है - “एक ही ख़्वाब कई बार देखा है मैंने”। ये गाना धर्मेंद्र पर फ़िल्माया गया था और भूपिन्दर की आवाज़ क्या सटीक बैठती है उनपर। नए रूपांतरण में बैचलर्स पैड में एक लड़की का आना, वक़्त का थम जाना और भूपिन्दर की आवाज़ - फिर से वैसी ही सटीक। बेहतरीन लेखनी, अव्वल चित्रांकन और आवाज़, दो-तीन जेनेरेशन पुरानी पर जो दोनों दृश्यों में बिल्कुल बराबर असर करती है।


उसी फिल्म, किनारा, के २-३ और गाने जैसे “नाम गुम जाएगा”, “मीठे बोल बोले”, तो जैसे उनके लिए ही बने थे। पंचम ने भी भूपिन्दर की बाकी हुनर का भरपूर इस्तेमाल करने के बाद आख़िरकार उनके गायिकी का भी बख़ूबी उपयोग किया।


भूपिन्दर के ही एक गाने ने हमें एक और नगीने से परिचय कराया - निदा फ़ाज़ली!

“कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता,

कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता”


“दम मारो दम” हो या “चुरा लिया है तुमने जो दिल को” का रोमांटिक गिटार, भूपिन्दर कई विधाओं में दक्ष थे।

“दिल ढूँढता है” में जितना जादू गुलज़ार के शब्दों का है, उतना ही योगदान भूपिन्दर की आवाज़ का है। “जाड़ों की नर्म धूप” वाले अंतरे में तो उनकी आवाज़ की गर्माहट तक को महसूस किया जा सकता है।


अस्सी के दशक में उनके ग़ज़लों ने भी ख़ूब धमाल मचाया और साथ ही साथ “आवाज़ दी है” या “किसी नजर को तेरा” ने जैसे एक हॉंटिंग मेमरी बना दी।


उनके बारे में कुछ लेख पढ़े तो ज्ञात हुआ कि वो हक़ीक़त फ़िल्म से शुरुआत करते हुए रफ़ी, तलत जैसे दिग्गजों के साथ गाना गा चुके हैं। और कई फ़िल्मों में अपने ही उपर गाते हुए फ़िल्माए भी गए हैं। पर उनकी आवाज़ चूँकि टिपिकल हिन्दी फ़िल्म हीरो को सूट नहीं करती थी इसलिए अमूमन उनको बैकग्राउंड सिचूएशन में ही इस्तेमाल किया जाता रहा।


सत्तर-अस्सी के दशक में जब एक्सपेरिमेंटल सिनेमा का दौर शुरू हुआ तो भूपिन्दर को एक नया स्टेज मिला। 

फ़ारुख़ शेख, नसीरुद्दीन शाह, आमोल पालेकर के लिए उन्होंने कुछ यादगार गीत गाए। उससे पहले गुलज़ार ने अपनी फ़िल्मों के लिए भूपि जी का कुछ इस तरह इस्तेमाल किया कि वो गाने फ़िल्मी गीतों के लिए एक अलग ही आयाम बन गए।


“जब तारे ज़मीं पर…तारे और ज़मीं पर? ऑफ़ कोर्स” - ये इतना कैजु़अल वाला ऑफ़ कोर्स, जब से सुना था हमें भी बोलने का बहुत मन था। और फिर हमने ट्विटरपर पढ़ा कि बहुत सारे लोग इस “ऑफ़ कोर्स” के कायल थे।

और एक कहानी तो हम हर बार दोहराते हैं कि कैसे हमें एक गाने का सिर्फ़ एक शब्द याद था और उससे डी ने पूरा गाना ढूँढ लिया था। निस्संदेह डी के गाने का टेस्ट और पहचान ज़बरदस्त है पर इस बार ज़्यादा श्रेय हम देंगे भूपि जी की अंदाज़-ए-गायकी को और एक आना हमारी मिमिक्री को।

भूपि जी के ही गाए हुए शब्द उनके लिए उपयुक्त बैठते हैं -

“नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा

मेरी आवाज़ ही पहचान है, ग़र याद रहे”

रोग

जिस तरह वो भैया अपनी आपबीती सुनाते हैं वैसी बातें करना एक आर्ट है। एक-एक शब्द ऐसे कि आप ही बीमार फ़ील करने लगें। निस्संदेह कष्ट में थे, जैसा कि उनके विवरण से लग रहा था। पर किसी भी कष्ट की ऐसी साहित्यिक विवेचना मेरे लिए एक नवीन अनुभव था।

दुर्गा पूजा का समय था और हम थे भागलपुर में, अपनी जन्मभूमि, जहॉं अनगिनत श्री श्री दुर्गा पूजा समिति न सिर्फ़ हमारा स्वागत कर रही थी बल्कि करते रहने का सार्वजनिक ऐलान भी कर रही थी।

छुट्टियों का हमारा उद्देश्य होता है घर पर एकांत में विश्राम और इसलिए हम लोगों, रिश्तेदारों से कम ही घुलते मिलते हैं। ऐसे में अपनी दिनचर्या में ख़लल से हम उद्विग्न हो जाते हैं। लेकिन कुछ चीज़ें अपरिहार्य होती हैं जैसे विजयादशमी के दिन बड़े-बूढ़ों से आशीर्वाद लेना। तो बस हम फँस गए।

शाम होते होते घर बहुत ही भरा-भरा सा हो गया। २ बहनें, उनके पति, उनके बच्चे और दो तीन और भाई।

जब जमावड़े में थोड़ा ज़्यादा उत्साह बढ़ने लगा हम बाहर वाले रुम, जिसको स्थानीय शब्दों में ड्राइंग रुम कहा जाता है, में आकर बैठ गए। और यहॉं शुरु हुआ रोग का व्याख्यान।

बात शुरु हुई जब किसी ने पैथोलॉजिकल टेस्ट्स की बात छेड़ी। सस्ते-महंगे टेस्ट, क्या-क्या और कौन-कौन से टेस्ट अनिवार्य होने चाहिए, इत्यादि से शुरु हुई बात मुड़ गई भिन्न क़िस्मों की बीमारी की तरफ।

“हम पहले सब चीज़ पचा लेते थे, पर अब बहुत दिक़्क़त होता है।”, भैया अपनी बात शुरु करते हैं।

“कल बारह नम्बर गुम्टी से ओल लेकर आए थे, बोला कि देसला है। उसके बाद जो बनाकर खाए, बाप रे बाप, ऐसा ओल था - पूरा मुँह में दाना-दाना। होंठ सब फूल गया। देखो अभी लग रहा है फूला हुआ?”

“हॉं, लग रहा है हल्का अभी भी”, हमने भी सान्त्वना वाली एक हामी भरी।

“तुम विश्वास नहीं करोगे, दो दिन से जो पेट में दर्द हुआ है। ऐसा लगता था कि छोटा-छोटा बुलबुला पूरा पेट में उपर नीचे कर रहा है। सोते थे तो गड़-गड़ बजता था और एकदम मरोड़ देता था”, दोनों हाथ उपर नीचे करके उन्होंने “गड़-गड़” शब्द को रूपान्तरित किया।
“लैट्रिन जब गए तो लगा जैसे अतड़ी निकल गया। तीन बार, चार बार - वही हाल। पॉंचवॉं बार कुछ हुआ ही नहीं। प्रेशर पूरा दिए लेकिन कुछ नहीं। फिर अचानक से पूरा दर्द जैसे पैर में आ गया”, भैया अब रुकने वाले नहीं थे। और हम शुरुआती वाक्य के पहले शब्द को सुनकर किसी तरह अपनी हँसी दबा रहे थे।

“पैर का दर्द ऐसा हुआ कि मत पूछो। पूरा जोर से रस्सी दोनो पैर में बाँध दिए, एक दो घंटा तक। तब जाकर थोड़ा आराम मिला।” 

हमें लगा कि बहुत कष्ट में रहे होंगे और रस्सी से पैर बाँधने की अगर नौबत आ गई मतलब काफ़ी सीरियस मामला था। जब वो रुके तब हम सोचने लगे कि शायद किसी ने सच ही कहा है कि दुःख बाँटने से घटता है। भैया ने जैसे मेरे मन की बात पढ़ ली और अपने कोटे के बाक़ी बचे दुःख को भी घटाने का मन बना लिया।

“ऐसा न तबियत ख़राब रह रहा है। तुम हमसे दो महीना पहले मिलते तो पहचान नहीं पाते।” इतना बोलते ही उछल कर मेरे पेट को अपने बाएँ हाथ से पकड़कर बताने लगे।

“ऐसा लगता था कि एक रॉड लगा दिया है - यहॉं से यहाँ तक”, मेरे डायफ्राम से लेकर निचले उदर तक हाथ फेरने लगे। इतना नाटकीय अंदाज़ था कि हम हड़बड़ा कर उठ बैठे।

“मुँह पूरा काला! पूरा पेट लगता था फूला हुआ; हमेशा गैस। छाती में लगता था मकड़ी के जाल के जैसा महीन धागा पकड़ लिया है। बंधा-बंधा लगता था एकदम! हाथ पैर ज़रा सा हिलाते थे तो डकार पे डकार”, हम उनसे थोड़ी दूर बैठ गए थे और जब उनको फ़िज़िकल कॉन्टैक्ट का मौक़ा नहीं मिला तो उन्होंने अपनी ही छाती पर हाथ फेर कर उन्होंने महीन धागों और डकार का उपक्रम किया।

“एक दिन क्या हुआ पता है! पैर पूरा हवा हो गया। स्कूटी चला रहे हैं लेकिन पैर पता ही नहीं चल रहा है।”

“अरे ऐसे तो एक्सीडेंट हो जाएगा!”, हमने उनके मोनोलॉग को ब्रेक किया।

“अचानक होता है! फिर अपने आप ठीक भी हो जाता है। हम दिखाए डाक्टर को तो बायॉप्सी किया था; जैसे डाला मुँह में तार पूरा उल्टी और पेट पचक गया। फिर लैट्रिन गए वैसे पेट में दर्द; पैर में दर्द लेकिन पहला बार ही हुआ है। गला ऐसा लगता था कि कोई पकड़ा हुआ है, यहाँ पर।” अपने ही हाथ से अपना गला दबाकर वो फिर से बहुत ही नाटकीय ढंग से समझाने की कोशिश कर कहे थे कि उनके गले में भी कुछ भयंकर क़िस्म की बीमारी हो गई थी।

“आप एक फ़ुल बॉडी टेस्ट करवा लीजिए, लग रहा है कुछ अन्दरूनी प्रॉब्लम है।”, हम अब इस बात को और लम्बा नहीं खींच सकते थे।

“आप अभी भी गुटखा खाते हैं क्या?”

जवाब तो हमें पता ही था पर पब्लिकलि किसी से ऐसे सवाल पूछने और साथ में सटल हिंट भी देना कि आपके सारी बीमारी की जड़ बस आपकी वही व्यसन है, का सार था कि बस भैया अब आप सेल्फ़ कंट्रोल सीखिए और हमें अपने रोग चालीसा के पाठ से मुक्ति दीजिए।

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...