Tuesday, May 02, 2023

मात्रात्मक दोष

 गुणात्मक और मात्रात्मक, या क्रमशः क्वांटिटेटिव और क्वालिटेटिव - क्लास एट से ये शब्द हमारी वोकाब्लरी का हिस्सा बन गए थे और उस दिन हमने सीखा कि चीजों को कैसे इन विशेषणों से अलंकृत करना चाहिए। ये जानने के बाद जैसे दुनिया ही बदल गई हालाँकि पहले भी ऐसी समझ बनने लगी थी कि क्या परिमेय है और क्या अपरिमेय। जैसे ख़ुशी को आप चार किलो हँसी से नहीं तौल सकते; पर दो रसगुल्ले से शायद उसका आँकलन कर सकते हैं। थोड़ा चिंतन-मनन किया तो लगा कि अमीर-गरीब, काला-गोरा, चोर-पुलिस, हैव्स-हैव नॉट्स की तरह ही दुनिया यहाँ पर फिर बँट जाती है - गुणात्मक-मात्रात्मक।

ज्ञात हो कि आपकी बातों में भाव गुणात्मक हो पर अर्थ दोषात्मक भी हो सकते हैं। जैसे खीर बहुत स्वादिष्ट हो सकती है पर विपरीतार्थक अर्थ और भाव में बहुत बेस्वाद भी! सो किसी खीर का स्वाद उसका गुण भी हो सकता है और दोष भी। धीरे-धीरे ये समझ में आया कि इन्द्रियों से ज़्यादातर जिनकी अनुभूति हो वो गुणात्मक होते हैं। दृश्य, स्पर्श, स्वाद, घ्राण सारे अपनी गुणवत्ता से ही विशेष्य बनते हैं और इसलिए गुणात्मक की श्रेणी में आते हैं। बस ध्वनि को डेसिबल की इकाई मिलने से वो मात्रात्मक विशेष्य बन जाता है। आजकल वैसे रिकमेन्डर अलगोरिदम ने शेष बची अनुभूतियों को भी एक इकाई दे दी है - रेटिंग। जनता होटल का चयन इस मानदंड पर करती है कि बालकनी से दृश्य की रेटिंग क्या है। रेस्तराँओं के खाने का स्वाद की रैंकिंग से सप्ताहांत की आउटिंग का चयन होता है।

अब गुण, दोष, भाव, अभाव का विश्लेषण कर लेने के बाद हम अपनी पर्सनालिटी को भी समझने लगे। हम हमेशा से वो “धीमी आँच पर जी है ज़िन्दगी” वाले लोग हैं, जो सिक्स पैक्स वाले ग्रीक गॉड को देखकर विचलित नहीं होते; बल्कि हमें तो स्वास्थ्य के परिमेयकरण से भी चिढ़ है। अब अपने वज़न और क़द से “बी एम आई” निकाल कर हम क्यों इस एक अंक से अपने स्वास्थ्य का अवलोकन करें। और अगर करें भी तो क्यों इस एक अंक के पीछे अपने ऊपर पागलपन सवार करवा लें। ज़िन्दगी और स्वास्थ्य बहुआयामी हैं, इस एक आयाम से कम से कम हम तो अपने आप को फ़िट या अनफ़िट नहीं कह सकते। उसी तरह एक और गुण है कैलरी गिन कर खाना। अब भिन्न-भिन्न शरीर, अवस्था और पाच्य शक्ति को आप एक साँचे में कैसे ढाल सकते हैं। कैलरी एक इकाई है पर यह आपके शरीर पर निर्भर करता है कि वो कितना पचाता है और कितना संजोता है। 

उसी तरह हमें ये मैराथन दौड़ कभी समझ नहीं आई। ठीक है आप लम्बी दौड़ लेते हैं, बहुत अच्छी बात है। पर ये कैसी सनक कि हमने पैंतालीस दौड़ों में शिरकत की है। वो आपका गुण है, उसे गिन-गिन कर गुनाह क्यों बना रहे हैं। अच्छे ख़ासे मैराथनों में दौड़ कर मेडलों की माला लटकाने वालों को हार्ट अटैक होते सुनते हैं। 

उस दिन भी एक ऑफिस के जूनियर से ऐसी ही जिरह हो गई। बात शुरु तो हुई थी बहुत ही सरल ढंग से कि हमें अपनी सेहत की देखभाल करनी चाहिए, चाहे व्यायाम हो या खेल-कूद। हमने जब से होश सम्भाला है खेल-कूद ही में मन रमाया है, शायद इसलिए हमारा सेहत के प्रति अधिकतर गुणात्मक रुझान ही रहा है। मतलब ये कि जमकर खेला और जब थक गए तो आराम कर लिया। न सेट की गिनती न रेप्स का झंझट - जिम के स्पिरिट से बिल्कुल विपरीत। और इसलिए हम जिम में दो सप्ताह से ज़्यादा टिक भी नहीं पाते हैं। बस यहीं पर हमारे विचार में भेद आ गया और विवाद शुरु हो गई। हम काबिल की तरह उसे ये समझा रहे थे कि फ़िट होना और शर्ट की सिलाई की चरम नापता, फूले हुए डोले से लैस ख़ुद को फ़िट दर्शाना अलग-अलग बाते हैं। ऐसी लॉजिक पर हमें आलसी बोलकर वो कहकहे लगाने लगा। बातों बातों में उसने ये भी कहा कि जिस दिन हम वर्क फ़्रॉम होम करते हैं उस दिन हज़ार स्टेप्स भी पूरे नहीं होते। हम समझ गए कि ये विवाद मात्रात्मक और गुणात्मक मुद्दा बन जाएगा जो “ऐड इन्फिनिटम” से शुरू हो “ऐड नॉज़ियम” तक चलता रहेगा। हमने ख़ुद ही सफ़ेद पताका लहराया पर वो कहाँ मानने वाला था। उसके दस मिनट लम्बे मोनोलॉग के बाद हमने युग पुरुष के डायलॉग से अपना केस रेस्ट किया - “आजकल हम चलते कम हैं पर गिनते ज़्यादा हैं।”

बेकर्स डज़न

डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...