Tuesday, May 11, 2021

चश्म-ए-बद्दूर

“अबे! क़यामत ही है!”, कुछ आश्चर्य, कुछ उल्लास से अंगुष्ठों पर सारी भावनाओं का निचोड़ डालकर, हम अपने दोस्त भट्टी को मेसेज कर रहे थे। और नाहक उल्लास, जैसे वो हमारी गर्लफ़्रेंड रही हों! 

इस चैप्टर की शुरुआत तब हुई थी जब हम इंजीनियरिंग के आख़िरी साल में थे और हमें विप्रो में इंटर्नशिप करने का मौक़ा मिला। ये इंटर्नशिप मिलना अपेक्षाकृत सरल ही था और सोने पे सुहागा ये हुआ कि आवागमन के लिए हमें एक बस-पास मिल गया। पंच लक्षणम वाली उमर में सर्वदा कंगाल सर्वोच्च गुण होता है, तो ये बस-पास जैसे दैवयोग ही था। हमारे कॉलेज बस-स्टॉप से एक विप्रो बस, सुबह ठीक सात बजे गुजरती थी। 

हम, भट्टी और क़यामत, बस यही कुल जमा तीन लोग उस बस स्टॉप के नियमित यात्री बन गए। क़यामत कौन? इस सवाल के जवाब के लिए आपको मेरे फ़िल्मों से बटोरे हुए ज्ञान को झेलना पड़ेगा। ऐसी फ़िल्में जो आम जनता को पसंद तो आती है पर उसके क्लास को हम जैसे होनहार ही समझ पाते हैं। 

सई परांजपे की फिल्में ऐसी ही हैं, चाहे वो कथा हो या चश्म-ए-बद्दूर। पर उनके लेवल वाली फ़िल्में आजकल कहॉं बनतीं हैं। परांजपे परिवार वैसे बहुत ही मेधावी है। उनके बारे में पढ़ा तो अचरज हुआ कि ये परिवार फ़िल्मों में कैसे आ गया। गणितज्ञों का परिवार (सई परांजपे के नाना तो सीनियर रैंगलर थे) और विलक्षण गुणियों में एक रुसी कनेक्शन। उनके परिवार में हल्के रंग वाली ऑंख का रहस्य तब पता चला था।

ख़ैर आईए चश्म-ए-बद्दूर की दुनिया में। पहले ही सीन में आप समझ जाएँगे कि ये कोई साधारण मसाला फ़िल्म नहीं। सिगरेट के धुएँ में डूबे हुए तीन दोस्त मेहंदी हसन की ग़ज़ल का लुत्फ़ उठा रहे हैं। तीसरा थोड़ा पढ़ाकू सा है (उसकी कुर्सी पर अरस्तू लिखा है जो शायद उसके दोस्तों की कारिस्तानी है) और थोड़ी देर में पता चलता है कि उसे संगीत में कोई दिलचस्पी नहीं है। उस किरदार के विपरीत मेरे शेरो शायरी, ग़ज़ल, उर्दू के प्रति रुझान में इस फ़िल्म का बहुत बड़ा हाथ था। और ये फ़िल्म है तो बिल्कुल मासूम सी, पर बीच बीच में शायरी का तड़का इसे लज़ीज़ बना देता है।

तो इसी फ़िल्म का पहला शेर है - 
 “बन कर, सँवरकर वो निकले मकॉं से, 
  यही शोर होगा यहाँ से, वहॉं से, 
 अरे क़यामत क़यामत किसे कहते हो, 
 वो देखो क़यामत चली जा रही है” 

क़यामत से हमारी मुलाक़ात पहले ही दिन हो गई थी जब बस-स्टाप पर भट्टी और हम अपनी बस का इंतज़ार कर रहे थे। अचानक हमें घोड़े की टापों सी आवाज़ आने लगी। पलटकर देखा तो हाई हील पहने, बहुत ही उम्दा फैशन-सेन्स वाली हमारी हमसफ़र चली आ रहीं थीं। हमने भट्टी की तरफ़ मुड़कर वही शेर दागा। फिर क्या उस दिन से वो हमारे लिए क़यामत थी और हम शायद उनके लिए दो छिछोरे!

दिन उन दिनों क्या ग़ज़ब की गति से बीतते थे। हमारी इंटर्नशिप ख़त्म हो गई और हमें विप्रो का ऑफ़र मिल गया। भट्टी को इस बीच रॉबर्ट बॉश्च से भी ऑफर आ गया था और वहीं से हमारे रास्ते अलग हो गए! हॉं, क़यामत कनेक्शन की आख़िरी कड़ी लेकिन अब भी बची थी।

जॉब करते हुए कुछ एकाध साल बीत गए तो एक दिन भट्टी ने मेसेज किया - ‘अबे क़यामत दिखी मुझे बॉश्च में’! मेसेज के टोन में भरपूर उत्साह छलक रही थी। दिमाग़ पर ज़ोर डाला तो सारी यादें द्रुत गति से वापस आ गईं। जहां तक याद है थोड़ी मायूसी भी हुई थी।

“ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना,
बन गया रक़ीब आख़िर जो था राजदॉं अपना”

पर तीन दिन के अंदर जैसे पासा फिर पलट गया और हमने अपनी कशिश पर खूब क़सीदे पढ़े। ये वही दिन था जब हम अपने बस पर क़यामत को देख पूरे जोश-खरोश में भट्टी को मेसेज कर रहे थे। फिर हिम्मत जुटाकर हम उनकी सीट के पास पहुँचे। इतने दिनों के बाद पहली बार उनसे मुख़ातिब होते हुए मेरे मुँह से निकला - “आपने बॉश्च ज्वाइन किया था क्या?”। पलटकर उन्होंने हमें देखा और मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि किया तो था पर वहॉं का काम नहीं जँचा तो वापस! बातों बातों में नामों का भी आदान प्रदान हुआ। बस इतनी सी ही थी ये लघु कथा। फिर नए रंगों ने पुरानों को फीका कर दिया और अब तो इतने साल बीत गए हैं कि वो नाम भी याद नहीं। लेकिन आप ही सोचिए अगर हम आपको ये कहानी दोहराते तो आपको क़यामत याद रहती या कोई नेहा या पूजा!

बेकर्स डज़न

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