Friday, August 07, 2020

जीवनदायिनी

अंगों को समेट कर
इतनी जगह बना ली 
कि उसमें एक ज़िंदगी समा जाए। 
दिल बड़ा कर वेगपूर्ण किया रक्तचाप 
कि नई धमनियों सुर्ख़ हो जाए। 

क्यों न हो हर पीड़ा 
हर दर्द से एक आत्मीय बंधन
चेतना जिसने भी दी हो 
जड़ का तो तुमने ही किया सिंचन। 

कोई गिनता दिन, 
कोई महीने 
पर तुम्हें था धड़कनों का एहसास, 
तुम अतुलनीय, 
अकल्पनीय, 
तुम जीवनदायिनी
तुम धड़कन,
तुम्हीं थी उसकी सॉंस!

2 comments:

  1. Bahut Sundar ! Atulya !

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  2. बहुत सुन्दर रचना

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