Monday, December 16, 2019

ठाकुरजी

ठाकुरजी हमारे कुनबे के एक तरह से कॉनसिलियरी हुए। अगर आपने गॉडफ़ादर पढ़ी या देखी है तो आप समझ ही गए होंगे और अगर नहीं तो सुनिए। हमारे पिताजी अगर गॉडफ़ादर हुए तो ठाकुरजी यथाशक्ति उनके हुक्म की तामील करने वाले हुए और यदा कदा अपना ज्ञान बांचने वाले भी। कद होगी उनकी कुछ साढ़े चार फीट, रंग सॉंवला, मितभाषी और हमेशा फॉर्मल्स में। वो कहते हैं न - ही मीन्स बिज़नेस। 
उनकी पहली बहाली वैसे ड्राइवर के रुप में हुई थी। पर धीरे धीरे उनकी कार्यकुशलता और प्रचुर मात्रा में जी हुजूरी उन्हें वहाँ से उठाकर हमारे “ओसरा” तक ले आई थी। बड़े कार्यों को सिद्ध करने के लिए उनका आवाहन किया जाता था। जैसे गैस लीक का अंदेशा हो, ताला तोड़ना हो, प्लंबिंग का काम या समरसेबुल की जानकारी। ठाकुरजी इन कार्यों में पारंगत तो नहीं थे पर जैक ऑफ ऑल होने के कारण कुछ न कुछ जुगाड़ कर ही लेते थे।
अच्छा आप समरसेबुल में ही अटके रह गए क्या - वही बोरिंग जो जल स्तर नीचे होने के कारण आजकल हर घर में लगाया जा रहा है।गुगल मत करिए, ये लोकल लिंगो है नहीं मिलेगा; लोकल लिंगो में ही - गुगल फेल है। अच्छा चलिये अपनी तृष्णा का निवारण कर लीजिए और सब-मर्सिबल गुगल कर लीजिए। 
हॉं तो ये सारा ज्ञान भी ठाकुरजी या तो रखते थे या ऑउटसोर्स करवाते थे।
एक बार दोस्त की शादी में दरभंगा जाना था और हम बैंगलोर से ये मन बना कर चले थे कि घर से अकेले ऑल्टो में जाएँगे। रोड ट्रिप भी हो जाएगा और चूँकि उस वक्त सुशासन बाबू के बारे में बहुत सुन रहे थे तो एक झलक देख भी लेंगे। हाल ही में गाड़ी चलाना सीखे थे(ठाकुरजी से ही) तो जोश चरम पर था। घर पहुँचकर योजना में थोड़ी फेर बदल हो गई और ठाकुरजी को हमारे साथ लगा दिया गया कि कम से कम एक आदमी साथ में रहेगा।
अब ठाकुरजी हुए नंगे पॉंव ड्राइव करने वाले, योजनाबद्ध चालक जो चाय के लिए भी वहीं रूकेंगे जहॉं का मन उन्होंने सफर से पहले बना लिया है। ख़ैर सवारी निकली, तय हुआ था कि विक्रमशिला पुल को पार कर नौगच्छिया होते हुए दरभंगा पहुँच जाएंगे। अब संयोग कहिए या ठाकुरजी का “जतरा” कहिए, विक्रमशिला सेतू पिछले चौबीस घंटे से बन्द था। कारण था एक ट्रक जो पुल के बीचों बीच बन्द पड़ गया था, तो इधर वाले इधर और उधर वाले उधर ही फंसे पड़े थे।
हमने गाड़ी वापस मोड़ी और चल पड़े मुंगेर की तरफ कि मोकामा-समस्तीपुर वाले पुल से होकर दरभंगा पहुंच जाएंगे। 

गुगल मैप्स उस वक्त नवजात था तो वो भी नहीं बता पाया कि उस पुल की मरम्मत चल रही है; पहुँचे तो ये बात पता चली। पर अब जाना तो था ही तो हमने मन बनाया कि गॉंधी सेतू से हाजीपुर, मुज़फ़्फ़रपुर होते हुए गंतव्य पहुँचेंगे। इतना सुनना था कि ठाकुरजी का सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने दागा अपना डॉयलॉग - “धौ! ओझरा दिए आप!”। अब अक्षरशः इसका अर्थ है कि आपने उलझा दिया पर इसके पीछे जो जीवन दर्शन है वो ठाकुरजी के बहुत सालों के अनुभव का निचोड़ है। कई दिनों के मंथन के बात हमें पता चला कि ठाकुरजी ने हमें लक्ष्य, ध्येय, प्राप्ति मार्ग के बनिस्बत गंतव्य की महत्ता - सबका सार उन चार शब्दों में बता दिया था।
उसके बाद उस पूरे सफर में बहुधा वो मौनी बाबा ही बने रहे। हमें भी लगा कि हमने जैसे उनके ब्रह्माण्ड में बहुत बड़ा कटाव कर दिया है सो हमने और कोई दुस्साहस नहीं दिखाया और चुपचाप सीधे रस्ते दरभंगा पहुंच गए। 
वैसे पहुँचने में काफ़ी वक्त तो हो ही गया था पर हम फेरे होने से ठीक पहले पहुँच गए तो लगा कि कार्य सिद्ध हुआ। और उसके बाद जैसे ठाकुरजी को पल भर भी चैन नहीं। उनका मन तो था कि तुरंत ही वापस हों लें, फिर भी किसी तरह वो उस रात (वैसे भी पौ फटने में ३-४घंटे ही बचे थे) रुकने को तैयार हो गए ।दूसरे दिन ब्रह्म मुहूर्त में ही हम निकल पड़े। लौटते वक्त बरौनी से पूर्णिया, नवगच्छिया होते हुए घर पहुँच गए। हालाँकि बरौनी के पास एक ट्रक का जत्था मिला था लेकिन उसके बाद कुछ भी अप्रिय नहीं  हुआ और हम बड़े आराम से घर पहुँच गए। लौटने का सफर इतना नीरस था कि ठाकुरजी ने ही हमें बीच में कहीं रुकने को कहा कि चाय पी लेते हैं।
वैसे पूरे सफर में मुज़फ़्फ़रपुर-दरभंगा ही ऐसा दौर था जहॉं सुशासन बाबू का चमत्कार दिखा। चार लेन के बेहतरीन रास्ते ने मन मोह लिया और किसी बड़े हाईवे सी फ़ीलिंग भी हुई।

आजकल ठाकुरजी के बड़े सुपुत्र विक्रम ने कॉनसिलियरी का पदभार सम्भाला है। फुटकर कामों से उन्होंने अपनी कार्यकुशलता दिखानी शुरु की है और अब तो पूरा घर भी उनके देखरेख में छोड़ा जाने लगा है। 
घर छूट जाए तो हर छोटी बात को बार बार संजोने का मन करता है।और हर बार एक टीस होती है जब वापस लौटना होता है। हालाँकि यह प्रबन्ध फूलप्रूफ तो बिलकुल भी नहीं पर किसी तरह मन को मना लेते हैं कि हमारी अनुपस्थिति में कोई तो है जो माँ या पिताजी के आवाज़ देने पर दौड़ जाता है।

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