Tuesday, May 31, 2022

लता मंगेशकर

एक लम्बी तान बार-बार सुनाई तो दे रही थी लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है न कि गुनगुनाए बिना आपको वह गीत याद ही नहीं आती। उस दोपहर ऐसा ही हो रहा था। और चूँकि एक चौथाई दिमाग़ काम में लगा था हर बार उस गीत के मुखड़े तक पहुँचने से पहले शब्द जैसे फिसल से जा रहे थे। न काम ही हो पा रहा था और न ही गाने की पहचान! कुछ देर तक यही जद्दोजहद चलती रही और फिर गाना बंद हो गया। 


अब तो मन जैसे तिलमिला सा गया। लैपटॉप बंद कर उसी तान के बारे में सोचने लगे। आवाज़ तो लताजी की थी इसमें कोई संदेह नहीं था। कुछ दिन पहले उनका देहांत हुआ था तो शायद किसी ने उस दोपहर लताजी को स्वरांजलि देने की ठानी थी। जिस दिशा से आवाज़ आ रही थी वो इतनी ही दूरी पर थी कि धुन साफ-साफ आ रही थी पर बोल आसपास के शोर में घुल जा रहे थे। मन उस तान में उलझा हुआ ही था कि अगले गाने के कुछ शब्द बिलकुल स्पष्ट सुनाई दे गए।


“तेरी भी ऑंखों में ऑंसूओं की नमी तो नहीं…तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं।”


इन शब्दों ने तो जैसे एक सैलाब ही ला दिया। हम उन काबिलों की श्रेणी में आते हैं जो समझते थे कि लताजी एक धाक वाली गायिका थीं, जिन्होंने अपने प्रतिस्पर्धियों का करियर “बाय हुक ऑर क्रुक” ख़त्म करवाया था ताकि उनका एकछत्र राज चलता रहे। साथ ही हम ये भी मानते थे कि उनको नब्बे की शुरुआत बल्कि अस्सी के उत्तरार्ध में ही गाना छोड़ देना चाहिए था। पर जैसा भी हमारा आँकलन हो ये तो तथ्य है कि उनकी गायकी अलग ही दर्ज़े की थी।


कितनी बार ये गाना सुना होगा और लताजी के देहांत के बाद शायद पहली बार। चार दशकों की यादें चुभने लगी और यादों की जमघट से ये शब्द भी निकल कर आए - 

“तू खेले खेल कई, मेरा खिलौना है तू…”

उस वक़्त की, बिना समझे, बस मॉं की गोद और गाने की धुन याद है; लताजी इंट्रोड्यूस हुई थी मॉं की लोरियों से। लड़कपन तक आते आते, दिल तो पागल है का “अरे रे अरे ये क्या हुआ…” सुनकर लगता था कि कितनी बकवास आवाज़ है। लेकिन उसी दौरान “कभी ख़ुशी कभी ग़म” के लम्बे आलाप से जैसे मन विचलित हो जाता था। माहौल ही ऐसा था की बैंगलोर का अकेलापन और भी सूना हो जाता था। वही कहते हैं न कि कुछ चीज़ों का असली महत्व उमर होने पर ही समझ आता है। जैसे मुकेश की गायकी तभी समझ में आती है जब आप उमर की एक दहलीज़ पार कर जाते हैं।


अधेड़पन आते आते ऑंधी, अराधना, गाईड के गानों के नए मायने मिलते गए। इन दशकों में लताजी के गाने और भी नौस्तैलजिक लगने लगी। 

“कहॉं गईं शामें, मदभरी वो मेरे, मेरे वो दिन गए किधर”!

शब्दों में इत्र योगेश के थे तो रंगों के अलग-अलग शेड लताजी की तान ने भरे थे। गाने में शब्दों का महत्व तो है ही पर कैरियर तरंगों के बिना वो शब्द शायद वहाँ पहुँच ही नहीं पाएँ जहां से और जहां के लिए उन्हें लिखा गया है।


उस दोपहर की स्वरांजलि में कई बेहतरीन गाने बजे और सच में ऐसा लगा कि हिन्दी फ़िल्मों की आत्मा थीं लता मंगेशकर। मेरे लिए तो चार दशक थे लेकिन लताजी चार-पाँच  जेनेरेशन्स से गा रहीं थीं। शुरुआत की तान, जिससे ये यादों का सैलाब उठा था, अब भी खटक रही थी। हमने सोचा कि डी से ही पूछ लें क्योंकि उनका रेंज और गाने पहचानने की कला हमसे कई कदम आगे है। मसलन एक दिन हम गाने के बोल, धुन सब भूल गए थे और सिर्फ़ एक शब्द याद था - दरवाज़ा! इस शब्द से ही डी ने बता दिया कि गाना बाज़ार फ़िल्म का वो बेहतरीन नज़्म है - “करोगे याद तो”! और तभी हमारा माथा ठनका कि वो गाना तो बाज़ार फ़िल्म का ही था। उफ़! ख़ालिस उर्दू में लिखा हुआ ये गाना जिसके कुछेक शब्द और भाव तो अभी भी समझ में नहीं आते। उस वक़्त, थोड़े से बदलाव के साथ हम उसी फ़ीलिंग में गोते लगा रहे थे - “सुनाई दिए यूँ कि बेख़ुद किया, हमें आप से ही जुदा कर चले!”

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