Tuesday, May 17, 2022

अभिमन्यु

महारथी अभिमन्यु के बारे में कई कहानियाँ लिखीं गई हैं।  चक्रव्यूह तोड़ने का अधूरा ज्ञान होते हुए भी उसने अंदर घुसने का दुस्साहस किया और वहीं लड़ते हुए वीरगति पा गया।  थोड़ा इंटरनेट और कुछ बी आर चोपड़ा वाली महाभारत से इस कहानी के कुछ और व्याख्यान मिलते हैं।

कहानी तो सबको पता ही है कि कैसे अर्जुन अपनी गर्भवती पत्नी सुभद्रा को व्यूह रचना के बारे में बता रहे थे। कुछ तो अर्जुन का ही दोष रहा होगा कि वो सुभद्रा को सुलाने में सफल होते हैं। लेकिन सुभद्रा के सो जाने के कारण उनके गर्भ में अभिमन्यु व्यूह से बाहर निकलना नहीं सुन पाता है। इन सबके बावजूद वो अपने राजा को बचाने के लिए सर्वोच्च बलिदान देते हुए इतिहास (या मिथक) के पन्नों में अमर हो जाता है। आजकल शायद ऐसे लोगों को बेवक़ूफ़ करार कर दिया जाए - कि भैया बाहर निकलने आता नहीं और कूद पड़े महासमर में।

ये तो हुआ लेजेंड और इस लेजेंड का बचपन से हम पर गहरा असर हुआ था - कि अधूरे ज्ञान और बिना सोचे उसका प्रयोग का हश्र, मौत ही है। हालाँकि अभिमन्यु जानता था कि उसकी मौत निश्चित है लेकिन विकल्प तो उससे भी भयावह था। फिर कुछ कर्म, मर्यादा और कर्तव्य के आडम्बर से यह निर्णय महाभारत के सर्वोच्च घटनाओं में गिनाया जाने लगा।

हॉं, तो इस कहानी का हमारे जीवन पर ऐसा असर है कि जब कभी ऐसे अधूरे ज्ञान का विषय हमारे सम्मुख आ खड़ा होता है हम इस कहानी और उसके भयानक परिणाम में उलझ से जाते हैं। उस पर से हाल ही में जब गैरी कैस्परॉव की किताब “हाउ लाइफ़ इमिटेट्स चेस” में एक उदाहरण पढ़ा तो जैसे हमारा विश्वास और भी दूना हो गया। उन्होंने लिखा है कि मान लें कि कोई ऐसी किताब से शतरंज सीखता है जिसमें मोहरों की चाल और खेल के नियम का सारा विवरण हो पर उसमें खेल का उद्देश्य और उसका अन्त, वाले पन्ने फटे हुए हों। तब कोई बिना उद्देश्य के कैसे खेल का आनंद उठा पाएगा। शायद बहुत जल्द उसकी शतरंज से रुचि भी खत्म हो जाएगी और हो सकता है, इसी पर आधारित उसके भविष्य में कुछ नया सीखने का उत्साह, लक्ष्य भेदने की संतुष्टि सब खत्म हो जाए। किताब में ऐसी समविचारी बातें आपकी परिकल्पना को दृढ़ विश्वास में बदल देती है।

और इस विश्वास से ओत प्रोत होकर एक दिन हम एम के बिखरे हुए एल्फ़ाबेट के कार्डों को समेट रहे थे। अमूमन ये रोज़ का ही काम है क्योंकि बच्चे खिलौने की महत्ता तभी समझते हैं जब वो उन्हें नहीं मिलता है। ख़ैर अगली बार कार्ड का डिमांड और फिर न मिलने पर रोना-धोना न हो, उस उद्देश्य से कार्ड सहेज रहे थे। जब सारे कार्ड उठ गए तो हमने देखा कि वाई वाला कार्ड ग़ायब है।

अभी कल ही तो ये कार्ड का डेक लाए थे इतनी जल्दी ग़ायब भी हो गया! पूरा घर छान मारे तब भी वाई नहीं मिला। फिर कार्ड के डेक को खंगाला तो हमने देखा की ज़ेड के दो कार्ड हैं। 

अब अगर आपने उपरिलिखित लेजेंड और हमारी विश्वास की बढ़ती डिगरी को पहचान लिया है तो आप समझ ही गए होंगे कि हमारा दिमाग़ किस उधेड़बुन में फंस गया होगा। हालाँकि अंग्रेज़ी में वाई से उतने भारी भरकम शब्द होते नहीं हैं लेकिन संयुक्ताक्षर बनाने में वाई का बड़ा योगदान है। और यहॉं तो एम के नाम का दूसरा अक्षर ही वाई है!

फिर क्या! हमने वाई का ज्ञान को चक्रव्यूह भेदने सरीखा मान कर अंदर बाहर, उपर नीचे, दाएँ-बाएँ, ईशान-अग्नि सभी दिशाओं से भेदने की सीख एम को दे डाली। इसका असर दिखा और कम से कम तीन साल के होते होते एम अपना नाम अच्छे से लिख पाने लगी। 

इसके बाद, हम पर जैसे एक भूत सवार हो गया। जो भी किताब हाथ लगता उसमें सबसे पहले हम ये देखते कि कहीं कोई पन्ना तो ग़ायब नहीं है। यह सिलसिला शायद जीवन भर मुझे अपने पाश में बांधे रहता अगर हमारी सुभद्रा हमें ये कहकर न रोकती - “क्यों चक्रव्यूह ढूँढते फिरते हो, कौन सा तुम अर्जुन हो जो ये अभिमन्यु निकलेगी?”

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