Friday, August 09, 2019

दाहिने हाथ की मध्यमा

“कनिष्ठा में मून स्टोन या मोती, अनामिका में मूंगा, दाहिने हाथ के मध्यमा में गोमेद, बॉंयें हाथ के मध्यमा में घोड़े के नाल या नाव के कॉंटी की अंगूठी । इतना तो जैसे अनिवार्य ही है। बाकी अगर ग्रह गोचर की दृष्टि और भी वक्र है तो तर्जनी में टोपाज़ नहीं तो सोना पहनिए और अंगूठे में रुबी”, पंडितजी धड़ल्ले से बताते चले गए। 

“अब सबको सब ‘पत्थल’ सूट नहीं करता है और किसी किसी को दसों उंगली में भी पहनना पड़ सकता है”, थोड़ा और ज्ञान भंडार खोला पंडितजी ने और भागलपुरियों में पत्थर के प्रचलित अपभ्रंश को भी बेहिचक इस्तमाल कर गए। 

हमारा उनसे सवाल काफी सरल था कि कौन सी उंगली में कौन सा ‘पत्थल’ पहनना चाहिए, लेकिन चूंकि उनके चाचा राष्ट्रीय स्तर के बड़े ही जानकार ज्योतिष थे - उन्हें जैल सिंह के हाथों पुरस्कार भी मिला था, जिसका साक्षात सबूत कमरे में घुसते ही सामने वाली दीवार पर था - इन्हें भी ऐसा दर्शाना था कि इनका ज्ञान उनसे उन्नीस नहीं है!

लेकिन दाहिने हाथ की मध्यमा का असली महत्व, शायद पंडितजी भी नहीं जान पाए थे और जानते भी कैसे क्योंकि ये अंग्रेजों की नहीं वरन अमेरिकियों की ईजाद की गई भाषा है। और अगर अमेरिकी फिल्मों से पंडितजी का पाला पड़ा होता तो उनके ज्ञान का भी विस्तार हुआ होता या फिर शायद पंडितजी इन ऊँचाइयों की जगह कहीं और की गहराईयों में गोते लगा रहे होते। 

इन विषयों में हमारे भी ज्ञान चक्षु बैंगलोर आकर ही खुले। वैसे तो हमें मादर-ए-ज़बान के अपशब्द बखूबी पता थे, लेकिन आंगल भाषा में इन शब्दों का तरजुमा किसी ने नहीं बताया था। फिर जब बैंगलोर आकर पता चला कि अंग्रेजी में भी ऐसी शब्दावली है और साथ ही ऐसे हावभाव हैं जिनसे आप बिना बोले भी बहुत कुछ बोल सकते हैं, तब हमें एहसास हुआ कि कितना ज्ञान भरा पड़ा है इस संसार में और सीखने को कितना कुछ बाकी है! 

हालांकि, उस वक्त कुछ धुंधली यादे थीं हमारे जेहन में - जिसमें ‘डब्ल्यू डब्ल्यू ई’ के खतरनाक लड़ाके, चाहे वो ‘द रॉक’ रहें हों या ‘स्टोन कोल्ड स्टीव ऑस्टिन’, जब भी एक दूसरे को गरियाते हुए अपना हाथ उठाकर कुछ इशारा करते थे तो उनके मध्यमा के इर्द-गिर्द धुंधलका सा छा जाता था; शायद इसलिए यादें भी धुंधली ही थीं। पर उस वक्त हम इसे दृष्टिदोष समझ अनदेखा कर देते थे। 

बात पहली बार उस वक्त प्रकट हुई जब एक स्थानीय सहपाठी से किसी विषय पर बहस हो गई। हम तर्क पर तर्क दिए जा रहे थे और वो झल्लाया जा रहा था। अन्त में उसी ने सबसे पहली बार हमारे चेहरे के सामने दाहिने हाथ की मध्यमा को लहराया और ‘आक थू’ सा कुछ बोलकर अपने रास्ते हो लिया। हमने भी उसके मुड़ने के बाद बेवकूफों की तरह खखार मारकर थूकते हुए उसकी तरफ मध्यमा से वैसा ही एक इशारा कर दिया था। ये समझ तो तब पुख्ता हुई, जब हमें अंग्रेजी फिल्मों का चस्का लगा और उन फिल्मों में यदा कदा मध्यमा का इस्तमाल देखा (बिना किसी धुंधलके के)। शनै:-शनै: हम भी इसके इस्तमाल में पारंगत हो गए, साथ ही ये भी पता चला कि वो ‘आक थू’ जो हमारे दोस्त ने हम पर बरसाया था वो भी एक चार अक्षरों का अपशब्द है। आश्चर्य तो इस बात का है कि आजकल हमारे अपार्टमेंट में ये अपशब्द बच्चों के मुँह से भी कई बार सुन चुका हूँ - मतलब हमने एक तिहाई ज़िन्दगी निकल जाने के बाद जो ज्ञान अर्जन किया, यहॉं पर ये बच्चे दूध के दॉंत टूटते टूटते ही सीख गए हैं।

हमारे साथ एक और किस्सा हुआ जिसमे हमें ये सीख मिली कि मध्यमा का इस्तमाल कभी कभी जानलेवा हो सकता है। यह एक मध्यरात्री की कहानी है जब हम अविवाहित थे और दिशाहीन, लक्ष्यहीन ३-४ दोस्तों के साथ, अपने दोस्त की गाड़ी में भ्रमण पर निकले थे। उन दिनों कोई हमारी गाड़ी को ओवरटेक कर ले तो फिर हम इसे खुला आमंत्रण मान लेते थे और फिर क्या -आखेट चालू! ऐसे ही एक आखेट की कहानी है ये।

मध्यरात्री का वक्त, खुली फ़िज़ा और एकांत सी एक सड़क पर सरपट भागती दो गाड़ियॉं। हमारा अभी इस विषय में (अन्य विषयों के ही तरह) ज्ञान थोड़ा संकीर्ण था पर जोश में कोई कमी नहीं थी। थोड़ी देर के बाद जब कोई स्पष्ट विजेता का निर्णय नहीं हो पाया तो हमलोग थोड़े शिथिल पड़ गए। तभी हमारी प्रतिद्वंदी कार हमारे ठीक सामने आकर रुक गई और उसमें से चार मुस्टंडे, भिन्न भिन्न प्रकार के हथियारों से लैस, उतरे। हमारे दोस्त ने भांप लिया कि कुछ अनिष्ट होने वाला है (भांप तो हमने भी लिया था पर हमें जैसे सॉंप सूंघ गया था - शरीर के हरकत की तो बात ही न करें, हमारे मुँह से चूं तक नहीं निकल पाई थी) और उसने तुरंत रिवर्स लेकर फिल्मी अंदाज़ में ‘यू’ मारकर गाड़ी को फिर से हवा की सैर कराई। 

जब हमारे कुछ जान में जान आई तो बात चली कि ऐसे कौन से लोग थे और आखिर ऐसा क्या हुआ था, जो बिना किसी चेतावनी के हमारे रक्त पिपाषु हो गए थे। इस पर हमने अपने नौसिखिये जोश और उस जोश की संगिनी दाहिने हाथ की मध्यमा पर दोष जड़ा। चारों दोस्त वैसे ही डर, दहशत, गुस्से और असमंजस के चतुरंग में नहाये हुए थे, फलत: उन्होंने दिल खोलकर शुद्ध भाषा में हमारी बुद्धी और जोश को अलंकृत किया। उस दिन हमें समझ में आया कि दाहिने हाथ की मध्यमा कितनी बीभत्स हो सकती है और उसी दिन (या मध्यरात्री) हमनें इस भाषा, हावभाव और साईन लैंग्वेज में स्नातकोत्तर की पदवी पा ली!

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