Thursday, August 04, 2011

छत, जेठ की रात और हमारे हिस्से का आसमान

आज जब एक ब्लॉग पढ़ा तो जैसे कहीं और ही बह गया। बात तो उसमे बस एक चौक की थी लेकिन ऐसा लगा कि लेखक ने हमारी पुरानी यादों का बस्ता खोल दिया। और ठीक उसी वक्त हमारे कुक ने किसी से फोन पर ट्रांसफार्मर का ज़िक्र किया।

फिर जो अगला दृश्य हमारी आँखों के आगे था वो था जेठ की गर्मी की रात और हमारे घर की छत। भागलपुर या उस जैसे छोटे शहरों में ये तो आम बात होती है कि पूरे मोहल्ले का एकलौता ट्रांसफार्मर, गरमी के चरम पर पहुँचते ही जवाब दे जाता है। और गर्मी की अँधेरी रातों में जनता अपने अपने छत को अपना कमरा बना लेती है। उसी में बच्चे एक लालटेन की रौशनी में पढ़ रहे होते हैं, कोई रेडियो सुन रहा होता है और कोई बस ऐसे ही आराम कर रहा होता है। वैसे ये बात गौर करने की है की छत पर पढने का मज़ा ही कुछ और है। जब मन उब सा जाये तो आस-पड़ोस में एक नज़र घुमा लीजिये। कुछ मोहल्ले वाले दोस्त दिख जायेंगे और इसी बहाने अगर किस्मत अच्छी है तो शायद कुछ नयन सुख भी ।


और फिर हमारे यहाँ तो तिवारीजी, सिन्हा साहेब, पाठकजी सब मिलकर या तो गर्मी को गरियाते थे नहीं तो विज्ञानं और तकनिकी को कहीं कोने में फ़ेंक कर, ट्रांसफार्मर के प्रचालन पर चर्चा। मतलब आपका ज्ञान विस्तार इस गति से होता था कि नए शब्द सीखने के साथ साथ आप ये भी समझ जाते थे की कितना तेल ट्रांसफार्मर में डालना पड़ता है, कब तक उसको चार्ज करना होता है और कितने दिनों में बिजली रानी आप पर दया बरसाती हैं। उस खुले वातावरण में आप न सिर्फ कम्युनिटी लिविंग सीखते हैं बल्कि तर्क-वितर्क का भी अभ्यास हो जाता है। और इतनी ज्ञान वर्धक बातें आजकल कहाँ हो पाती हैं। खासकर बड़े शहरों में वक़्त की तो ऐसे ही किल्लत होती है। फिर कौन छत पर चढ़े (पहले तो आप खुशकिस्मत हैं अगर आपके पास अपनी छत है) और कौन आस पड़ोस वालों से जिरह करे । और जो ख़ुशी बिजली रानी के आने पर होती हैउस ख़ुशी से तो शायद आज की जेनेरेशन वंचित ही रह जाये। अजी वैसी ख़ुशी तो हम कहेंगे इंडिया के वर्ल्ड कप जीतने पर भी नहीं हुई थी। एक सामूहिक शोर सा उठता था और कितनो की आहें,कितनो के उलाहना भरे शब्द से सैलाब सा बन जाता था ।

फिर लौट कर अपने कमरे में तो पढने की इच्छा भी नहीं होती थी। बस इंतज़ार होता रहता था की कब बिजली फिर से जाये और हम एक मायूस सा मुखौटा लगाकर, दिल में उमंग लिए फिर से छत पर पढने भागें। और फिर तारों के नीचे पढने/सोने का मज़ा ही अलग है। उसमे आप कभी टूटता तारा देख सकते हैं, कभी कोई धूमकेतु और कभी कुछ न दिखे तो एक भटकते हुए हवाई जहाज़ कि जलती बुझती रौशनी। आज इस बड़े शहर में तो अपने हिस्से का आसमान देखना मुश्किल होता है तो कहाँ कोई तारे और धूमकेतु देखे, हाँ हर दूसरे घंटे पर हवाई जहाज़ की रौशनी अदृश्य तारों की कमी का एहसास ज़रूर करा जाता है।

1 comment:

  1. Are tumne post likh diya hai and humein pata bhi nahin chala :P .
    Mast likha hai .. And chat ko kamra bana lena.. wah wah.. I'm so nostalgic , Chat pe sitaron ke neeche sone ka alag hi maza hai :)

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