Saturday, May 14, 2011

कृष्णागिरी बना पांडिचेरी

हमारा पहला रोड ट्रिप - अगर आप हमें बचपन से जानते हैं (नहीं भी जानते हों, तो आपने कुछ ज्यादा मिस नहीं किया है), तो ये बात तो तय है की आप इस बात पर हसेंगे - बिकाश, बुलबुल पर, पांडिचेरी - असंभव, अनहोनी!!!


लेकिन हाँ एक शनिवार की सुनहरी दोपहरी (जी हाँ हमारे क्रेडिट कार्ड के किस्सों के बाद हमने योजनाबद्ध सफ़र कम कर दिया है), हम अपने मित्रों के साथ निकल पड़े। सच पूछिए तो हमने पांडिचेरी का प्लान ही नहीं बनाया था। प्लान यूँ था की कृष्णागिरी (जिनको दूरी ज्ञात नहीं उनके लिए - कृष्णागिरी और पांडिचेरी के बीच का फासला प्रारंभिक योजना से करीब तीन गुना है) मे कॉफ़ी पीयेंगे और शाम तक लौट आएंगे। अब कुछ "मतवाले" नौजवान (हमारी संख्या थी ४ लोग गाडी मे और मैं अपनी बुलबुल पर सवार) जब ऐसी प्लानिंग करें और मौसम भी मतवाला हो जाये, तो ऐसे तारतम्य को कभी नकारना नहीं चाहिए। और हमने भी वही किया - राह चलते हमारे मित्र ने अपना लम्बा हाथ बाहर निकाला (अगर आपने भारतीय राजमार्ग पर सफ़र किया है तो हाथ दिखाने का मतलब - धीमे जाएँ, मैं मुड़ रहा हूँ, तू तेरा देख, तेरी ^&$% की - जैसा कुछ भी हो सकता है)। लेकिन क्यूंकि मित्रों की शालीनता उस वक्त बरक़रार थी, उसके कहने का मतलब था आगे रुको (जी हाँ, एक मुद्रा और कई अर्थ - भारतीय हैं, हाथ दिखाने के और भी मतलब निकाल सकते हैं )।


हम कृष्णागिरी के बहुत पास थे और उस वक्त रुकने का कोई मतलब नहीं बनता था। लेकिन ४ पहिये अगर २ पहिये को रुकने कहे तो रुक जाने में भलाई है। कच्ची सड़क पर उतरते ही पता चला की ४ पहियों की सवारी ने पांडिचेरी जाने का मन बना लिया है। २ प्रतिक्रियां हो सकती थी - या तो हम बिलकुल मना कर देते या ख़ुशी से फूलते हुए निकल पड़ते। पर यहाँ पर हम सकते में आ गए और हमारे मुँह से निकला - "पागल हो क्या"। ऐसे सवाल जिनके जवाब आपको पता हों, या जिनके जवाब न हों, उन्हें अंग्रेजी मे rhetoric कहते हैं, हमारा सवाल ऐसा ही कुछ था। क्यूंकि उस स्थल पर हम छहों (बुलबुल मे भी दिल है) को पता था की उसका जवाब क्या है। बस अब निर्णय ये लेना था की हम हमारी बुलबुल पर (आधे खुले हेलमेट के साथ, सर्विसिंग को तरसती बुलबुल लेकर) जायें या नहीं। और चूँकि प्रारंभिक योजना कॉफ़ी पीने की थी, तो वही करते हुए हम सब तैयार हो गए (तैयार तो थे ही सब लेकिन बस दिल को बहलाना था) ।



अब जब हम कृष्णागिरी के पास बायें लेते हुए चेन्नई राजमार्ग पर आये तो सड़क देख कर आँखें चमक गयी। लेकिन ये हमारा रास्ता नहीं था (पहले सफ़र कर चुके होने के कुछ फायदे होते हैं - एक तो ये की आप पथ भ्रष्ट नहीं होते), हमें राज्यमार्ग (स्टेट हाई वे) लेना था। और मुड़ते ही हम समझ गए की भारतीय पथ निर्माण संघ (आप उसको कई और नाम से बुला सकते हैं) के अधिकारी इतनी धनाड्य क्यूँ और कैसे होते हैं। अगले १०० किमी तक हमने उन अधिकारीयों के परिवार के प्रियजनों को याद किया (निस्संदेह चुनिन्दा दुर्वचनो के साथ) । इस ट्रिप को अगर देखें तो हमारी पहली १०० और आखिरी के करीब १०० किमी की यात्रा काफ़ी आरामदेह थी (धनवानों को भी थोडा काम करना होता है) । सड़क काफ़ी सुडौल, सुन्दर, सुसज्जित थी - अब इससे ज्यादा में राजमार्ग की बड़ाई नहीं कर सकता, लेकिन ये बीच के करीब ६०-७० किमी का वर्णन शब्दों में नहीं कर सकते - उस ६०-७० किमी के सफ़र ने हमारी जान नहीं ली, बाकी सब ले लिया।


खैर सारे खतरों को दरकिनार करते हुए, छोटे-छोटे विराम लेते हुए हम पांडिचेरी पहुँच ही गए। और फिर जैसा की तय हुआ था (रस्ते भर में एक अच्छा प्लान जो हमने किया था वो ये था), हम Ginger Hotel में रुके। उस होटल की इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ होगा की ६ लोंगो (बुलबुल का तब भी दिल था) ने चेक इन किया हो, और एक भी सामान नहीं। हमारी योजनायें ऐसी ही होती हैं - सामान लेकर क्यूँ लोड बढ़ाना था - और वैसे भी हम तो कृष्णागिरी के लिए निकले थे। शुक्र है की होटल वालों को इस बात से कोई परेशानी नहीं थी और हमने एक बहुत सुकून भरी रात वहां गुजारी । वापसी का सफ़र तो बस यूँ कट गया की उसके लिए कोई अलग ब्लॉग लिखना भी न पड़े ( हाँ पथ निर्माण अधिकारीयों के प्रियजनों के लिए चुनिन्दा दुर्वचन कुछ और चुनिन्दा भले ही हो गए - शायद उसके लिए ब्लॉग की ज़रुरत पड़े- लेकिन वो फिर कभी) और अब sun tan और रस्ते की परेशानियाँ यहाँ लिखना उचित नहीं होगा, ख़ास कर तब जब आप अपने पहले रोड ट्रिप से इतना लगाव रखते हों ।

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