Wednesday, September 07, 2011

इंकिलाब

तमस रोज़ तुझ पर बरसता है
क्यूँ सिंहनाद की आस तू रखता है
सिंह कब झुण्ड में बिसरते हैं ,
विरुद्ध अकेले ही चल पड़ते हैं ।
प्रलय की कुंजी तुझमे है
हुंकार काल का तुझमे है !!
तुझमे बहता जीव का गूढ़ रहस्य
तुझमे ही विप्लव का प्रचंड सरित।
सब्र का बोझ तू क्यूँ ढोता है
धैर्य की हद क्यूँ नहीं खोता है?
क्यूँ विवश, लाचार यूँ फंसा है तू
मुँह छुपाये कहाँ रमा है तू ।
जननी की गोद तरसती है
तुझे मूक देख वो बिलखती है
जन्म का ऋण तुझे भरना है
संजो हुनर-शक्ति-साहस, समर का आवाहन अब करना है ।

2 comments:

  1. साहेब, ये हुनर तो आप उस दिन छुपा ले गये। वैसे मजबूरी भी रही होगी, कटियार के सामने सिर्फ़ ’जगह मिलने पर पास दिया जायेगा’ रहता है :-) That was a lovely time with you guys.. :-)

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  2. शुक्रिया पंकज साहब :)
    वैसे आपकी रचनायें भी पढ़ी, आप screenplay लिखने की ज़रूर सोचें...काफी भावपूर्ण लय है आपकी लेखनी में !!

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