Saturday, April 18, 2009

पाखंडों की दुनिया में हम
द्वेश्दर्शी बन गए,
हाथ में लेकर परचम
बडबडाते चल दिए।

ना कूदेंगे मैदान में हम
श्रेष्ठता सिर मौर लिए,
वाक्-योधा बन के हम
दूर से ही हंस लिए।

आपके ही मौन से
ये बिलखता कौन है?
आँखें ऊपर को टिका
वर्तमान कुचलते चल दिए।

चलना उस पथ हैं नही
दिशाओं के अर्थ गुल किए,
टिप्पणियों की वर्षा से फ़क़त
मुद्दा ही हल्का कर गए।

4 comments:

  1. No Name to this poem ?
    i liked the words .But still name should be there :)

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  2. Could not think of any!!!
    Need some suggestion here.

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  3. This comment has been removed by the author.

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