Thursday, March 14, 2019

शिक्षा

मैं उसे उसके नाम से जानता था और वो मुझे मेरी गाड़ी से।
मेरे लिए वो बनवारी था और मैं उसके लिए हॉन्डा सिटी । वैसे मैं बस एक ग्राहक था उसके लिए, तो मैं कुछ भी होता तो बनवारी को कोई फर्क नहीं पड़ता - मर्सिडीज़, ऑऊडी, ईन्डिका या नैनो।
"ले लीजिए सर! धूप से बचिएगा", बिक्री के लिए बनवारी ने एकदम सरल सा सेल्स पिच रखा था।
"नहीं छोटू", आजकल की बोलचाल में ऐसे बच्चों के लिए यही सम्बोधन चल रहा है। १०-११ साल से ज़्यादा की उम्र नहीं होगी उसकी।

"कल बोले थे ना, इस गाड़ी के लिए अलग शेड आता है।"

फिर मुझे थोड़ी ग्लानि हुई तो मैंने पूछा, "स्कूल जाते हो?"
"नहीं सर, कहाँ स्कूल!", जैसै वो कहना चाह रहा हो कि स्कूल से तो अच्छी है रस्ते की कमाई।

"अरे कोई ठग लिया तो? बिक्री में सौ पचास का हेर फेर हो गया तो?", शिक्षा की इससे कमज़ोर सेल्स पिच शायद ही कभी सुनी गई हो।
"पहले पैसा, फिर सामान! कौन ठग सकेगा मुझे!", नये भारत का आत्मविश्वास बनवारी की आँखों में चमक रहा था।
तभी सिग्नल हो गया और मैं उद्विग्न मन से आगे बढ़ गया।
अगर किसी छोटे शहर के चौंक पर ये बातचीत होती तो शायद मन उद्विग्न होने का कोई कारण नहीं होता। पर विडम्बना देखिए, ये बातचीत भारत के सिलिकन वैली कहे जाने वाले शहर, बैंगलोर के मुख्य सड़क, महात्मा गांधी और ब्रिगेड रोड के चौराहे पर होती है।
क्या बनवारी को शिक्षा का महत्व समझाना इतना मुश्किल है?
मास्लो के पिरामिड का सजीव चित्रण है बनवारी। पहले पेट, फिर शिक्षा, फिर ऐशो आराम, फिर सोशलिज़्म, कैपिटलिज़्म, ग्लोबल वार्मिंग..।
स्ट्रीट स्मार्टनेस और साक्षरता का फ़र्क है बनवारी।

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