Friday, March 08, 2019

होमियोपैथिक आतंक

होमियोपैथी की दो हार्मलेस सी शीशियाँ थीं। बैग के नेटवाले पाउच से झांकती हुई सी लग रहीं थीं। लड़का, जिसने वो बैग उठाया हुआ था, अपने टीनेज की दहलीज को लाँघने ही वाला रहा होगा।

पटना के जय प्रकाश नारायण हवाई अड्डे के जेन्ट्स चेक इन की कतार लम्बी तो नहीं थी - पर यात्रियों की, सेक्योरिटी के द्वारा टोकने के बाद का नर्वसनेस और फलतः हड़बड़ी से वो कतार किसी खुले हुए बक्से के बिखरे सामान सा लग रहा था। सुबह की फ्लाईट थी इसलिए अलसाए यात्रियों से छोटी मोटी गलतियां स्वाभाविक भी थीं। कोई बेल्ट रखना भूल जा रहा था तो कोई अपना वॉलेट।

"ये नहीं जाएगा" - हार्मलेस सी दिखने वाली होमियोपैथी की शीशियों की ओर ईशारा करते हुए सी. आई. एस.एफ के तैनात सिपाही ने एक्स रे मशीन के पीछे से सर निकालते हुए कहा।

और उसी पल मेरी आँखों के सामने करीब १७-१८ साल पुराना एक वाक़या तैर गया।

"लाल वाले बैग में ठेकुआ-पिरकिया है और काला वाला में आचार और शुद्ध घी - रोटी में लगा कर खाना", माँ अपने प्यार को अलग रंगों के बैगों में भरने में प्रयासरत थी। साथ में यह भी हिदायत दी गयी थी कि दिन के किस वक्त, क्या और कितनी मात्रा में खाना है।
दीदी पास में खड़ी, आँखों के कोने से आँसू पोछती, रुंधे गले से बस इतना ही कह पाई थी - चिट्ठी लिखना। (जी हाँ!  वाक़या, मोबाईल क्रांति के पहले की है)

बेलाडोना और रसटॉक्स की होमियोपैथी की शीशियों को दोनों हाथों में पकड़े पापा उसको खाने की विधी बताने ही वाले थे कि मैंने टोका - "नहीं ले जाने देगा पापा, आजकल सेक्योरिटी बहुत बढ़ गया है"।

एक सजग और सचेत ग्लोबल नागरिक, जिसने ९/११ की भयावह दुर्घटना टी.वी पर सजीव देखी हो, की भाँति मैंने कहा।

"नहीं ले जाने देगा तो फेंक देना", पापा ने मेरे बैग के नेटवाले पाउच में उन शीशियों को लगभग ठूंसते हुए कहा।

यहां भारतीय, या कम से कम बिहारी, संदर्भ में प्यार कितना सिम्बॉलिक सा हो गया था - माँ का प्यार दो अलग अलग रंगों के बैग में और पिता का बस दो शीशियों में। मैंने सजगता और सचेतता को उसी नेटवाले पाउच में बांधते हुए चुप्पी साध ली। उस उमर में पापा से उतनी ही बातें कर पाता था।

पहली बार घर से निकलना या शायद यूं कहें कि घर से निकल जाना, बड़ा ही भावुक क्षण होता है। फिर "किसी दिन" वापस लौटने का ख़्याल भी कहीं न कहीं अन्तरमन में घर करने की कोशिश करता है; जो १०-१२ सालों बाद घर से बाहर रहने के बाद पता चलता है कि भुलावा था - वो "किसी दिन" कभी नहीं आता।
"सर दवाई है", लड़के ने अपने पिता के प्यार के छिन जाने से पहले एक क्षीण प्रयास किया।

"अल्कोहॉल है", सिपाही जी ने भी तर्क दिया।

'हाहा! जहाँ वो जा रहा है सिपाही जी, उस बड़े शहर के लड़के इतना अल्कोहॉल तो नाश्ते में डकार जाते हैं।'

पर वो शीशियां कूड़ेदान में चली गईं!

१७ साल पहले मेरे साथ ये नहीं हुआ था। मैं अपने माता-पिता के आशिर्वाद के साथ उनका प्यार भी साथ लेकर बैंगलोर उतरा था।
शायद ९/११ के आतंकी हमले से डर उतना व्यापक नहीं हुआ था, जितना पुलवामा के पलटवार से हुआ है; या वो आतंक का टीनेज था, जिसमें दोनो पक्षों ने खूब सीख ली और अब आतंक अधेड़ावस्था में है जहाँ दुनिया सजग और सचेत के साथ साथ शायद आतंकित भी है।

खैर जो भी हो, पर डर की नई ईकाई तो बन ही गयी है - बेलाडोना और रसटॉक्स की हार्मलेस शीशियाँ!

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