Monday, September 18, 2017

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मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे 
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते 
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ 
फिर से बाँध के 
और सिरा कोई जोड़ के उसमें 
आगे बुनने लगते हो 
तेरे इस ताने में लेकिन 
इक भी गाँठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई 
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता 
लेकिन उसकी सारी गिरहें 
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे

गुल्ज़ार साहब की उपरोक्त पंक्तियॉं, ज़िन्दगी की पेचीदा सवालों को जैसे बिल्कुल सरल बना देती हैं। शब्दों के जादूगर ने ये एक नज़रिया क्या ख़ूब पेश किया है। पर एक और नज़रिया जो इस ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से उजागर होने वाला है वो शायद उतना रंगीन न हो।


भारतवर्ष में मजदूरों की दुर्दशा पर कई अभिलेख मिल जाएंगे और उनकी आर्थिक बदहाली पर सामाजिक क्रान्ति की चर्चा भी उतनी ही संख्या में आपको मिल जाएंगे, पर इस दुर्दशा से निजात पाने के लिए कोई संघोष्ठी नहीं होती। इस समस्या के हल पर कोई  विचार संध्या नहीं होती। इस वर्ष हम आज़ादी की सत्तरवीं सालगिरह मना रहे हैं और बड़ी बड़ी बातें जो ऐसे मौकों पर की जाती हैं की गयी हैं। सामाजिक क्रांति पर विश्वविद्यालयों में नारेबाज़ी हुई, लोगों की जमात सामाजिक तबके में सबसे नीची जाती के मोहल्लों में गयी, हो-हल्ला हुआ, चित्र खिंचवाए गए और फिर सब भूल कर लोग अपने ख्वाबगृह में वापस चले गए।

 जुलाहों के वो मोहल्ले, जहाँ कुछ साल पहले तक लोग अपनी संकीर्ण जातिवाद से लैस होकर उनके हाथ से पानी पीने में संकोच करते थे (ये बात अलग है कि उनके बुने गए कपड़ों को खरीदने और बेचने में किसी को कोई संकोच नहीं होता था ), अब सामाजिक बदलाव की आस भी नहीं रखते हैं - सब कुछ, जैसा की आजतक होता आया है, भगवान पर छोड़ देते हैं । और ये एक बहुत बड़ा कारण है की भारत में आजतक सशस्त्र, हिंसक सामाजिक क्रांति नहीं हुई है (माओवादियों को समाज का हिस्सा मानना एक बड़ी गलती होगी, इसलिए उनकी गिनती यहाँ नहीं है) - भगवान का शुक्र है।  

लेकिन आज के युग में सामाजिक क्रांति खोखली नारेबाजी नहीं है। इंटरनेट ने इस खोखलेपन में कीबोर्ड की टप-टपाहट से अगर सामाजिक नहीं तो वैचारिक क्रांति की नींव ज़रूर डाली है। और इस दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है भाषाभारत ने।  

भागलपुर की ऐतिहासिक धरती ने कर्ण की दानवीरता देखी है, बिहुला का अपरिमित साहस देखा है, चंदो सौदागर का अनुपम रेशम कारोबार देखा है - और शायद एक बार फिर वक़्त आ गया है उसी स्वर्णिम रेशम कारोबारी युग को वापस लाने का। भागलपुर का तसर सिल्क विश्वविख्यात है और आज तक उसी पुराने व्यापारिक ढांचे के तहत बिकता रहा है। लेकिन भाषाभारत ने एक पहल की है जिससे आप ऑनलाइन तसर सिल्क से बने कपड़े मंगवा सकते हैं और इसका सीधा लाभ जुलाहों तक पहुंचेगा। बिचौलियों को इंटरनेट के सहारे बड़ी शालीनता से दरकिनार कर दिया गया है। ये वैचारिक क्रांति सामाज-सुधार के साथ साथ हथकरघा बुनकरों को उनको अपनी मेहनत का सही मेहनताना दिलवाएगा, इसी आस के साथ भाषाभारत को बहुत सारी शुभकामनायें।  

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