Saturday, February 08, 2014

BDA complex shop no. 22

बहुत ही बिखरी हुई भीड़ थी वहाँ पर.… कुछ लोग अंदर बैठे थे और कुछ बाहर खड़े थे।  अंदर उतनी जगह भी नहीं थी और ३ कुर्सियां और २ स्टूल उस छोटे दुकान को और छोटा कर रहे थे।  २ कंप्यूटर एक बड़े से लकड़ी के मेज़ पर रखे थे, जिनके सामने २ लोग बड़ी ही तन्मयता से लगे हुए थे।  उसी मेज़ पर कई ड्रावर बने थे जिनको पैसे, कागज़ों के बंडल के अलावा बाकी उपयोगी वस्तु जैसे कि स्टेपलर, रबर बैंड, कलम और अमूमन ऐसी वस्तुएं जिनको ड्रावर में ही रखा जाता है - के इस्तेमाल में लाया जा रहा था।  वहाँ पर बैठे दोनों लोगों कि उम्र २५-२६ से ज़यादा की नहीं होगी।  

हमने जैसे ही अंदर कदम रखा, हमारे दाहिनी तरफ बैठे उस बन्दे ने मुड़कर पूछा कि क्या चाहिए।  जब हमने आने की वजह बतायी तो उसने एक छोटी मुस्कान के साथ कहा कि हिंदी टाइपिंग तो बहुत वक्त लगेगा, आप कंटेंट छोड़ जाइये और कल आपको एक प्रूफ मिल जायेगा। हमारे पास एक ही दिन का वक़्त था पर जिस भरोसे के साथ उसने ये बात कही हमें लगा कि ये आदमी हमारा काम सम्भाल लेगा।  हमने झट से, उसे पहले से देवनागिरी लिपि में लिखा हुआ एक कागज़ पकड़ा दिया।  एक सरसरी निगाह से उसने उस कागज़ को देखा और अपना मोबाइल नंबर देकर दूसरे दिन आने को कहा।  जिस बेिफक्री से उसने उस कागज़ को अपने बाकी पड़े हुए बंडल में रखा, हमे एक बार थोडा शक़ हुआ कि क्या ये कागज़ उसे बाद में मिल जायेगा और क्या कल तक वो उसे टाइप कर तैयार रखेगा, वो भी देवनागिरी में।  और अगर वो नहीं कर पाया तो ?

खैर अपने आप को थोडा सांत्वना देते हुए हम वहाँ से निकल पड़े।  बैंगलोर हलांकि काफी कॉस्मोपॉलिटन शहर है पर देवनागिरी लिपि में टाइपिंग करवाना भारत के किसी भी शहर में कठिन है - हाँ, यूपी-बिहार में शायद उतना नहीं। पर आजकल कुछ कह नहीं सकते, जिस रफ़्तार से हमारी मादर-ए-जुबां लुप्त हो रही है उससे कम से कम इतना तो ज़रूर है कि हिंदी टाइपराइटर शायद ही आपको कहीं मिले।  टाइपराइटर से हमारा मतलब मशीन और आदमी दोनों से है।  कोरमंगला के बीडीए काम्प्लेक्स में दुकान नंबर २२ में कम से कम हमें एक तो मिल गया - ढूंढने से भगवान् मिलते हैं और शायद आज मिल ही गए।  ये दुकान रेंटल अग्रीमेंट टाइपिंग, एफिडेविट और भी विधि-संभंधित हर प्रकार के कागज़ी कामो के लिए है।  और वो दुबला-पतला सा चश्मिश - काफी दोस्ताना अंदाज़ था उसकी मुस्कान में - हमारे लिए तो भगवान सरीके ही हुए और उनका नाम भी तो महेश था।

दूसरे दिन हम फिर पूर्व नियोजित समय पर पहुंचे। और आज तो भगवन के साक्षात अष्टभुजावतार देखने को मिल गया। जिस सहजता से महेश अपने इर्द-गिर्द लोगों से काग़ज़ लेते उसे सरसरी निगाहों से देखते और मुस्कान बिखेरते हुए काम ख़त्म कर कागज़ वापस पकड़ा देते, उससे तो यही प्रतीत होता था कि उनकी कई और  भुजाएं हैं।

हमें देखते ही वही परिक्रम दुहराया उन्होंने और पता नहीं कौन सी भुजा से एक देवनागिरी लिपि में प्रिंट किया हुआ कागज़ पकड़ा दिया, मुस्कान के साथ। पर उनका प्रभुत्व या यूँ कहें उस प्रभुत्व का हमपर असर वहीँ पर सिमित हो गया।  करीब पच्चीसियों गलतियां थी उस प्रूफ में और हमने वहीँ सर पकड़ लिया कि अब ये सब कैसे ठीक होगा। काम भी तो ये आज ही होना था।  हमारी इस कशमकश को देवाधिदेव भाँप गए और फिर से अपनी मुस्कान बिखेरते हुए कहा कि आप साथ बैठें तुरंत काम हो जायेगा। अब हमारे पास और कोई चारा भी तो नहीं था। और फिर हमारी टिप्पणियों कि मदद से महेश ने काम शुरू किया और फिर से हम उनके प्रभुत्व से प्रभावित होने से वंचित नहीं रह पाये। हर २ शब्द टाइप करते करते कोई क्लाइंट धमक जाता और फिर से महेश बड़ी सरलता से उनकी उलझन सुलझा देते। इसी बीच हमने ये भी समझा कि महेश की कोई बहुत बड़ी डिग्री नहीं होगी पर उनकी कंप्यूटर पर भयंकर टाइपिंग स्पीड काबिल-ए-तारीफ़ है। साथ ही माइक्रोसॉफ्ट वर्ड और गूगल हिंदी टाइपिंग में उनका तजुर्बा अचभित करने वाला था।  और इन सबके बीच उनका कभी पैसे का लेन-देन, कभी अपने सहयोगी कि टाइपिंग में मदद, कभी प्रिंटर के कागज़ों को समायोजित करना - शायद इसी को स्ट्रीट स्मार्टनेस कहते हैं जिसकी कोई क्लास नहीं होती, ये आप जैसा नाम से पता चलता है स्ट्रीट पर ही सीखते हैं। आखिरकार महेश ने हमारा काम ख़त्म किया और उसका मेहनताना लेकर फिर से बाकी खड़े क्लाइंटेल में मग्न हो गए।  अब आप सोच रहे होंगे कि ये पूरा ब्लॉग तो देवनागिरी में ही लिखा हुआ है तो फिर किसी और पर इतना भरोसा क्यूँ? इसके लिए हम डी को ज़िम्मेदार ठहराएंगे जिन्होंने कहा था कि कागज़ पर टाइप ही होना चाहिए प्रिंटिंग नहीं चलेगी।लेकिन आख़िरकार हुआ वही जिसका सुझाव हमने पहले दिया था लेकिन उनके तैशपूर्ण प्रत्युत्तर पर हमने चुप्पी साध ली थी। और वो कहते हैं न घर कि मुर्गी दाल बराबर बिलकुल वैसा ही कुछ हिसाब किताब रहता है हमारा, हमारे घर पर।  

2 comments:

  1. Ha ha ha, The lines you wrote at last :P, I was really wondering why ,of all the people YOU should go to somebody else to get something typed in Hindi . :D:D. i would have come to you for sure in case i needed something in devanagiri :P .

    And By the way, I guess sare mardon ka waisa hi hisab kitab hota hai , Sabke gharon mein :P:P:P, And i guess girls feel the same way too .

    Iske liye , you should ask D to write her side of story.

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  2. :D sure will ask but I have my doubt, wo kahte hain na - "Kuchh kitabon ko khulne me zamana lagta hai..."

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