Friday, February 09, 2018

वसन्त

पिताम्बरी ओढ़े देवाधिदेव हुए प्रकट
चपला सी संगिनी थी उनके निकट
हर पीत पल्लव को कर सजग
लो देखो स्वर्णिम हुआ शरद।

हाथ पैर जुड़े कैसे एक हुआ कर रहे थे
कहीं वरदान तो कहीं दुआ कर रहे थे
इस प्रलय का न दो अब साथ,
दर्शन दो हे दीनानाथ!

संगिनी, शीत लहर बन जब हुई हावी
देवाधिदेव ने नीरद की घूंघट काढ़ी
अवनी-अम्बर जम बने हिमसागर
क्षमा देव! अब हो जाओ उजागर!

वसन्त भी कब से बाट जोह रहा था
रंगों को एक एक कर जोड़ रहा था,
स्वर्णिम छटा बिखरा, समेटो अपनी जयजयकार
अभिनंदन देव! अलसायी वसुन्धरा का हो अब श्रृंगार!

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