Friday, October 27, 2017

अर्घ्य दान

अस्ताचल सूरज मटमैला सा दिखता है,
शब्दरहित चुपचाप सा
जाने क्यों ये मन छलता है।
कार्त्तिक षष्ठी की छटा है छाई
किस उधेड़बुन में तू फंसा है राही।
न तौलो अपने भाग्य का लेखा
कब क्या पाएगा किसने है देखा।
नि:स्वार्थ, आशीर्वाद की बस रख चाह
झुका दो गर्दन की कमान,
कर भी दो अब अर्घ्य दान।


अस्तोदय तो जीवन चक्र है
सरल कहॉं, यह पथ वक्र है।
कहते हैं, ये है विधी का विधान,
कहीं सुगम सरल पगडंडियॉं
कहीं अवरोधों के ऊंचे मचान।
सर झुका कर रमे है रहना
वाक बाण वाचालों के सहना,
मांगना नहीं कोई वरदान,
बस अभी कर दो अर्घ्य दान।

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