Tuesday, April 18, 2017

काबिल

ये फिल्म तो अभी कुछ दिन पहले रिलीज़ हुई थी और एक बार शायद टीवी पर दिखाई  जा चुकी है।  लेकिन वो काबिल और हमारे काबिल में हिन्दू मुसलमान वाला फर्क है।  (ये तो मैंने इश्क़िया से उठाई है :)) वो न सिर्फ सकारात्मक सोच वाले काबिल हैं बल्कि प्रेरणा स्त्रोत भी हैं।

हमारे काबिल, जिन्हें बिहारी लहजे में "ढेर काबिल" कहते हैं, आपको राह चलते अपनी काबिलियत दिखाते हुए दिख जायेंगे। और प्रदर्शन के बाद इन्हें किसी दाद या वाह-वाही की दरकार भी नहीं होती।  लेकिन गर मिल जाये तो जैसे इनकी बाँछें खिल जाती हैं, पगों में पर लग जाते हैं।

"मैं मेन रोड पर नहीं हूँ।  दो सौ बार इधर से गया हूँ, कभी कुछ नहीं हुआ।  और मैसेज तो मैं कर भी नहीं रहा था।  मेरे पास इयरफोन्स हैं, बस कॉल काट रहा था। "

ये है हमारे काबिल का दक्यानूसी लॉजिक - ख़ैर उनसे लॉजिक की अपेक्षा करना हमारी ही ग़लती थी।

"और सर अगर कोई, खुदा-न-ख़ास्ता, आपको पीछे से ठोक कर निकल ले तो किसको दोष दीजियेगा?", हमने बड़े ही शिष्टतापूर्वक उनसे ये सवाल पूछा।

"तब देख लेंगे" - वाह! जाने क्या देखेंगे ये - अपना फटा हुआ सर, लहेरिया कट मार कर भागते हुए अपने सवा सेर को, या ग़ुबार में डूबती अपनी चेतना को!

D को उन चालकों से खासी चिढ है जो एक हाथ में मोबाइल पकडे दुसरे हाथ से गाडी चलाते हैं - द्वि-चक्र वाहन होने के बावजूद, और वो ऐसे लोंगो को उनकी गलतियां ज्ञात कराने में बहुत ही तत्पर हैं।  चिढ़ तो हमें भी है पर हम वाक् वाणों के बदले उन्हें एक भौतिक प्रयोग दर्शाने में ज़्यादा विश्वास रखते हैं।  और हुआ ये था की D ने बगल से गुजरते हुए "ढेर काबिल" को आवाज़ दी (या यूँ कहें की उनकी भलाई के लिए, उन्हें उनकी ही ग़लती का एहसास दिलाने का प्रयास किया) और फिर वही हुआ जो आजकल काफी आम बात हो गयी है।  उन्हें बात टच कर गयी - उनके स्वाभिमान को एक बहुत बड़ी ठेंस लग गयी - हमें हमारी ही ग़लती कौन बता रहा है, उसकी इतनी जुर्रत, और वो भी एक लड़की!

ढेर काबिल ने आव देखा न ताव, द्रुत गति से अपनी द्वि-चक्र वाहन को खूब खदेड़ा।  कभी दाएँ से , तो कभी बाएँ से - वो अपने आपको सुरक्षा के गनमास्टर G9 ही समझ रहे थे - आगे निकलने की कोशिश की।  लेकिन अव्वल तो रास्ता इतना संकरा, थैनी हमारी उधार मांगी हुई कार और थैलीथ G9 की बेवकूफ़ी , न वो आगे जा पा रहे थे और न ही हम उन्हें साइड दे पा रहे थे।

आख़िरकार रास्ता थोड़ा चौड़ा हुआ तो हमने सोचा उनकी मेहनत को ज़ाया नहीं होने दिया जाये और एक ओर गाड़ी रोक दी। और हमें कहाँ इल्म की हमारे प्रतिपक्षी को बड़े फुर्सत से, किलो के भाव, लॉजिक का भंडार मिला है।  थोड़ी देर तक उनसे जिरह करने के बाद, अपनी नीयति को कोसते हुए हमने उनसे व्यंग्यातमत तरीके से माफ़ी मांगी, जो की उनकी समझ से वैसे ही परे थी , और अपने रस्ते हो लिए।

तो ज्ञान ये बंटोरा हमने -
रहिमन धागा व्यंग्य का, फेरो जब मन भाय
उपकार ताक पर रखकर, गरियाओ जो आ जाय!

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