Tuesday, January 31, 2017

शब्दों के गुलज़ार


खिड़कियां खोल कर आज थोड़ी धूप बटोर रहा था।  जुकाम के कारण मिज़ाज थोड़ा दबा सा था सो गर्माहट के लिए वहीँ पास में बैठ गया।  कुछ किताबें भी स्टैक कर लीं की साथ में थोड़ी पढाई कर लें।  पर हाथ में जब मोबाइल फोन हो तो फिर कहाँ पढाई!
Twitter पर देखा की अभिषेक शुक्ल बहुत दिनों से छाये हुए हैं।  सुख़नवर हैं, बहुत अच्छी शायरी करते हैं।  पर डॉ कुमार विश्वास के साथ जो हुआ था या यूँ कहें की जो उन्होंने राह पकड़ ली है, हमारा मन नए शायरों से थोड़ा बिफर सा गया है।  और हुआ भी वही, हालांकि शुक्ल साहब की शायरी में बहुत सारे लफ्ज़ समझ नहीं आये लेकिन बहुत गहराई दिखी और उसी विडियो में नीचे गुलज़ार साहब का सजेशन भी आया।
गर्माहट थोड़ी धूप की तो थी ही पर जब गुलज़ार साहब का जश्न-ए-रेख़्ता वाला विडियो देखा तो जैसे गर्मी सिर्फ जिस्मानी नहीं रही, अंदर तक महसूस हुई। किताबें गुलज़ार साहब की लिखी हुई कंटेम्पररी कविता है जिसमे वो किताबों और उनकी घटती महत्ता पर टिपण्णी करते हुए कुछ ख़ूबसूरत शब्दों का जाल बुनते हैं। एक सैंपल:

"ज़बान पर ज़ायका आता था जो सफ़ा पलटने का, 
अब ऊँगली क्लिक करने से एक झपकी गुज़रती है "

ऐसे शब्द जैसे गुलज़ार साहब के सिग्नेचर हैं, सिर्फ वो ही ऐसी रूटीन सी चीज़ (उँगलियों को चाट कर पन्ने  पलटने का तरीका) पर एक शेर लिख सकते हैं। उनके बात करने का तरीका भी निराला है - रुक कर, थोड़ा ठहराव देकर अपनी भरभराई आवाज़ में (शायद इसी आवाज़ से गर्माहट टपकती है ), जैसे कोई उम्रदराज़, अपना सा कोई, ज़िन्दगी के मायने समझा रहा हो। और उनकी उर्दू तो जैसे चाशनी में डुबोये उस पंतुआ की तरह लगती है जिसे अभी ताज़ा तलकर निकाला गया हो।
इन सब के अलावा उन्होंने एक बात बताई जिसका ज़िक्र बहुत कम होता है - उर्दू (उनकी और हमारी, पाकिस्तान और हिंदुस्तान की), उसपर अन्य भाषाओँ का असर और उर्दू लिपी।  गुलज़ार साहब ने तो शबाना आज़मी की एक गोपनीय बात का भी खुलासा किया की उन्हें उर्दू लिपी नहीं आती और वो देवनागरी में ही उर्दू पढ़ती हैं।  लेकिन लिपी से तलफ़्फ़ुज़ पर असर नहीं पड़ना चाहिए।  और एक बेहतरीन उदहारण भी दिया -
"पिताजी दवा खाने गए हैं" और
"पिताजी दवाख़ाने गए हैं"
नुख़्ते की हेर फेर और शब्दों के मायने बदल जाना कोई नयी बात नहीं है पर ऐसी रोज़ाना सी बात का उदहारण सिर्फ गुलज़ार साहब ही दे सकते हैं।  एक छोटी सी बात से उन्होंने बता दिया की वो कितने प्रोग्रेसिव हैं - चोंगा बदल लेने से आदमी नहीं बदलता, तो उसी तरह लिपी बदलने से भाषा नहीं बदलनी चाहिए।  अलिफ़, बे, ते , टे से बढ़कर है उर्दू भाषा और उसे बांधने के बजाय अलग अलग साँचों में ढलने देना चाहिए!

PS: विडियो देख कर बहुत ही ज़्यादा इन्फ्लुएंस हो गए इसलिए भाषा थोड़ी भरी भरकम हो गयी है - I am not complaining though!

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