Sunday, March 15, 2015

मुलाक़ात

बचपन बस्ता है उन गलियों में,
डरते हैं गुजरें उधर से
और पहचानने से इंकार ना वो कर दे।

कितने मोड़ पहले छूटी मासूमियत,
याद नहीं
कितने चौराहों पर बिका ईमान,
कहाँ ख्याल इसका।
कुछ खरीदा,
बेचा बहुत
करीने से जो रखा था
वो कहीं फ़ेंक आये
बदल गए इतना की खुद से ही सहम गए।

जब भी उठाने को झुके नीचे पड़ी चांदी
वहीँ पर ऊपर की जेब में पड़ा सोना गिरा आये।  

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