Thursday, November 30, 2017

चारदीवारी

जोड़ के ईंट और गारा
बना लिया अपना संसार
अपने हिस्से की धूप,
अपने हिस्से की हवा-पानी
कर लिया जग से बँटवारा।

यहीं पर बॉंध लिया दु:ख सुख को
संजो लिया रौशनी और अंधियारा
ईकाई समाज की ही है
पर सामाजिक नहीं ये बँटवारा।

बाहर बहुत क्रोध है
यहॉं नहीं कोई अवरोध है,
भ्रम हो तो वही सही
पर सुकून है यहीं,
मन यहीं अबोध है।

यदा कदा बाहर सोपान पर
अभाग्य सर पीट जाता है,
दरवाज़े की कुंडी कभी क्लेश
खटखटा कर भाग जाता है। 

मगर जब कोई अपने बोझ को
यहीं पटक निकल जाता है -
वो त्रासदी, मन विचलित कर जाती है
इस चारदीवारी के उद्देश्य को
बिल्कुल खोखली कर जाती है।

No comments:

Post a Comment

दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...