Friday, September 26, 2025

दुर्गा पूजा

 “कुपुत्रो जायेत, क्वचिदपि कुमाता न भवति”, देवी दुर्गा क्षमायाचना स्तुति की ये पंक्तियाँ जैसे हमें भावार्थ सहित कंठस्थ है। और कैसे न हो जिस ओजपूर्ण तरीके से ये स्तुति गाई जाती थी और खासकर ये दो पंक्तियाँ, उससे कम से कम क्षमायाचना का बोध तो बिल्कुल ही नहीं होता था। पुत्र कुपुत्र हो सकता है पर माता कुमाता कभी नहीं - आदि शंकराचार्य के शब्दों को बड़े बुजुर्ग दुर्गा पूजा के दौरान हमें समझाने में लगे रहते थे।


कुनबा बहुत बड़ा था - आठ बहनों और तीन भाइयों का परिवार जिसमें औसतन हर परिवार में तीन-चार बच्चे; बहुलक देखें तो सात-आठ हो। मेरे ननिहाल नाथनगर में दुर्गा पूजा मिलने मिलाने के अलावा देखने दिखाने, जिसके लिए आंग्ल शब्द - शो ऑफ ज्यादा सटीक बैठता है, के लिए बहुत अच्छा स्टेज था। साथ में पूजा के माहौल में कुछ कहा सुनी हो जाए तो मामला शांत भी बहुत जल्दी होता था। आख़िर देवी आई हैं पूरे साल भर बाद उनके सामने तो कम से कम शिष्ट बनिए।


हमारे कुछ मौसेरे भाईयों की शिक्षा दीक्षा अपने ननिहाल में ही हुई थी। तो ममेरे और मौसेरे भाई बहनों का बहुत बड़ा ग्रुप वहाँ रहता था। दशहरा के समय हम सब इकट्ठे हो जाते तो करीब करीब एक मुहल्ले भर जितने बच्चे हो जाते थे। अब इतना बड़ा सैम्पल स्पेस हो तो उम्र को तो गॉसियन डिस्ट्रिब्यूशन का ही अनुसरण करना होगा। उस वक़्त बच्चों की उम्र की रेंज पॉंच से लेकर पच्चीस तक की थी, और ज़्यादातर बच्चे दस से पंद्रह की कैटेगरी में। बहुत कम उसमें अंग्रेज़ी स्कूल वाले और सबसे ज़्यादा गुरुकुल वाले बच्चे थे। गुरुकुल वहाँ का राजकीय माध्यमिक विद्यालय था। हम अंग्रेज़ी मीडियम वालों के लिए गुरुकुल की कहानियाँ बड़ी कूल लगती थी कि कैसे ये लोग झोला, बस्ता या कभी-कभी हाथ में ही किताब लेकर स्कूल जाते हैं, कैसे अक्सर नीचे फर्श पर बैठना होता है और कभी-कभी तो बिना किसी को बताए भाग निकलना भी होता है। और फिर सरकारी स्कूल वाली हेकड़ी - “तुम जानता है हम किसके भाई हैं?”। इन कहानियों के सामने क्या हार्डी ब्यॉज़ और क्या फेमस फ़ाइव! एक ही भेंट में साल भर की ज्ञानोपलब्धि हो जाती थी और नए शब्दों की विश्लेषण सहित जानकारी, फिर सांसारिक विधाओं की शिक्षा अलग! कुछ सात्विक और धार्मिक ज्ञान नाना बाबू और बुजुर्गों से भी मिल जाता था। मन इस भंडार से एकदम ओतप्रोत होने के बाद भी अगली भेंट के लिए विह्वल ही रहता था।


पूजा के समय का मौसम भी बहुत सुहावना होता है। पीली धूप, सफेद बादल, नीला आकाश, जितने भी रंग हम आसानी से देख पाते हैं सब दिखता था। कभी-कभी अगर दुर्गा माँ का आगमन नाव पर होता तो रात भर की बारिश के बाद पूरी दुनिया नहाई धुली लगती थी। हमें उसी दौरान दुर्गा माँ के वाहनों की बहुत ही नायाब जानकारी मिली थी। हर साल दुर्गा माँ सिंह पर सवार होकर नहीं आती हैं उनके तो वाहनों में बाघ, हाथी और यहाँ तक की नाव भी होते हैं। हर वाहन का अलग महत्त्व- मसलन वो हाथी से आईं तो धरती डोलने मतलब भूकंप की संभावना होती, अगर नाव से तो बाढ़ आने की आशंका और अगर घोड़े से तो फिर बहुत भयंकर बदलाव। नब्बे इक्यानवे में जिस तरह की राजनीतिक उथल पुथल हुई थी उससे तो यही लगता है कि उस साल दुर्गा माँ घोड़े पर सवार होकर ही आई होंगी।


सप्तमी और अष्टमी के दिन पूजा पूरे परवान पर रहता है। एकाध साल ऐसा हुआ था कि हमलोग सप्तमी में वहीं रुक गए थे तो कई नए अनुभवों का मज़ा लिया। जैसे बिल्कुल मुँह अँधेरे उठकर पूरी टोली के साथ फूलों और बेलपत्र की खोज में निकल जाना। उसी दौरान हमें पता चला था कि तेज नारायण बनैली कॉलेज और तिलका मांझी यूनिवर्सिटी अलग हैं और इतना बड़ा प्रांगण है कि वहाँ लोग भटक भी जाएँ। उस बार सुबह इन परिसरों की चारदीवारी को लाँघ कर हमारी पूरी टोली फूलों की खोज में निकली थी। हमारे भाईयों में कई इतने ज्ञानी थे कि उन्हें ये भी पता था कि कौन से फूल देवी को चढ़ा सकते हैं और कौन नहीं! उस बार तो भटकते हुए हम यूनिवर्सिटी के कैंपस में भी पहुँच गए थे। पहली बार टिल्हा कोठी भी देखी और गंगा का विस्तार भी। 


“ऐ बुड़बक! टिल्हा कोठी नहीं जानता है - अरे गुरुदेव यहीं गीतांजलि का रचना किये थे, इसीलिए तो इसको अब सबलोग रविंद्र भवन बोलता है।”


एक पोखर भी दिखा था जिसमें जल क्रीड़ा करते हुए कुछ भैंस भी दिखे थे। बाद में पता चला कि वही यूनिवर्सिटी क्रिकेट ग्राउंड है जहाँ आने वाले दिनों में कई रोमांचक मुक़ाबले हुए थे, जिनमें से एक हमारी स्कूल क्रिकेट टीम का भी ऐतिहासिक मैच था। इतना इतिहास, भूगोल जानने में समय का पता ही नहीं चला और जब तक हम फूल, बेलपत्र लेकर वापस पहुँचे तब तक आरती का भी समय हो गया था। आनन फ़ानन में कोई दौड़ता हुआ घड़ीघंट उठाने भागा, कोई शंख, कोई घंटी तो कोई आरती की किताब! इन्हीं आरतियों में हमने ओजपूर्ण संस्कृत उच्चारण और “तुम्हारे भक्तजनों में हमसे बढ़कर कौन” वाला प्रदर्शन देखा था। जहाँ बाक़ी स्तुति तो धुन के साथ दबी आवाज़ में गाए जाते थे लेकिन क्षमा याचना आते ही कुपुत्रों वाली पंक्ति पर सारा ज़ोर लगा दिया जाता था।


कुछ चीज़ों की अगर आज वर्णन करने बैठे तो कपोलकल्पना ही लगेगी - जैसे देवी के लिए बलि, रात भर घी के दिये का जलना, इतने बड़े परिवार का एक साथ सम्मिलित होना। हाँ, अब तो परिवार में शादी हो तब भी पूरा कुनबा नहीं जुट पाता है। दशहरा अब भी सुनहरे दिनों के साथ आता है लेकिन अब न वो घर रहा, न लोग। अब हम आदि शंकराचार्य की स्तुति का सही महत्त्व समझते हैं - न मंत्र जानते हैं न यंत्र, न आवाहन न ध्यान, बस अनुसरण करना जानते हैं क्योंकि हमको पता है कि कुपुत्र कई हो गए हों पर शशि ललाट माँ कभी भी कुमाता नहीं हो सकतीं।

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