मुँह बाये खड़ा था मुक़द्दर
हमने आंका तो ख़ुद्दारी
भभक उठी।
सवाल किए,
बड़े पेचीदे।
जो आस ही रखते हो,
तो व्यर्थ क्यों जलते हो?
गिरना हो शायद मुक़द्दर,
गिरकर उठना है ख़ुद्दारी।
भटक जाना भी हो शायद मुक़द्दर,
राह एक नई खोज लेना है ख़ुद्दारी।
अक्ल पर परदा दारी,
है मुक़द्दर
और मात न खाना है ख़ुद्दारी।
तकदीर हो शायद तेरा मुक़द्दर,
उसका, तेरी रज़ा पूछना, है ख़ुद्दारी।
गिरो, भटको, कोसो तकदीर को
गर चुनना ही है मुक़द्दर
काट कर, दफ्न कर दो ख़ुद्दारी।
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