Tuesday, August 11, 2020

चित्त रोगी

यशोधरा के बारे में बहुत सुना है। कभी पढ़ नहीं पाया हूँ । एक बार किसी जानकार ने “सखि वो मुझसे कहकर जाते” की भी चर्चा की। गुप्त जी के लिए सम्मान चौगुना हो गया । ज़माने की बात होती है, या यूँ कहें कि जुग की - औरत के परिप्रेक्ष्य से, उसके नज़रिए से ऐसे युगपरिवर्तक का किस्सा सुनाना। 

मैथिली शरण गुप्त की काव्य रचनाएँ ऐसे ही नए परिप्रेक्ष्य के कारण साहित्यिक स्तंभ माने जाते हैं।वैसे जुग और युग शब्दों में भी कितनी भिन्नता है; सारे रुढ़िवादी, पीछे खिंचने वाले विचार, जुग में विश्वास करते हैं; सारे प्रगतिवादी, आधुनिकतावादी, युग में। हॉं, बात वो एक समय की ही करते हैं - अर्थ एक पर सार पृथक!

आज परसाई जी को पढ़ते पढ़ते एक बार फिर उस महाकाव्य की झलक भर मिली। अब मैथिली शरण गुप्त की ऐसी रचना कोई एक दिन में तो पढ़ नहीं सकते, तो मन बनाया कि किसी छुट्टी के दिन यशोधरा का श्रीगणेश करेंगे। और किताब से पढ़ेंगे, ये सॉफ़्ट कॉपी में हमारा कभी जी नहीं लगा। आप सॉफ़्ट कापी में ‘पी डी एफ’ पढ़ सकते हैं, पर महाकाव्य के लिए हाथों और दिमाग़ पर बराबर का वजन होना चाहिए। सिर्फ़ पढ़ना हमारा मक़सद नहीं, हमारी भी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।


तो हमारी अपनी दुकान अमेज़ॉन पर सर्च किया और किताब मिल भी गई। बस अब छुट्टी का इंतज़ार है, जो कि कोरोना काल में तो मुश्किल ही लग रहा है। वैसे महाकाव्यों को पढ़ने के लिए किसी पहाड़ी छुट्टी की दरकार होनी चाहिए। क्यों? अब आप ही सोचिए कि समंदर किनारे, लहरों की आवा-जाही तो खुद एक काव्य रचना है, फिर वहॉं कहॉं महाकाव्य।


अब फिर से सोचिए हल्की मंद हवा, थोड़ी शीत समेटे आपको ठिठुरा जाती है। आप अपनी चादर को थोड़ा और जकड़ कर बॉंध लेते हैंऔर कॉफी के लिए हाथ बढ़ाते हैं। बाल्कनी के दूसरी तरफ आप ही की तरह, खुद को धुंध में जकड़े एक हरी भरी पहाड़ी आपको ताक रही है। ऐसे परिवेश के लिए ही महाकाव्य लिखे जाते हैं। सुनहले धुँधलके के बीच गोते खाता हुआ दिन, सुस्त गति से गुजरता हुआ; रातों में झिंगुर और यदा कदा बहती हवा की मद्धम आवाज़। ऐसी पृष्ठभूमि पर आप महाकाव्य को अपनी परिकल्पना से चित्रित कर रहे हैं। 

ना! ‘बीच’ पर ऐसा कहॉं हो सकता है।


और फिर कथानक के आविर्भाव के लिए ऐसी विचारोत्तेजक रचनाएँ उतनी ही आवश्यक हैं जितनी अच्छी फसल के लिए उर्वरक। विचारों का उमड़ना उस उल्टी की तरह होती है जो खाद्य पर नहीं आपकी पाचन शक्ति पर निर्भर करती है। पाचन अच्छी तो आप ऐसी रचनाओं को रगों में दौड़ते पाएँगे। लेकिन कहीं कोई शब्द या भाव ने किरकिरी की तो रचनाकार कुछ अपाच्य, कुछ ख़ुद के पाचक रसों को उलट देता है। एक कृति में पूरी तरह से चित्त शांत नहीं हुआ तो और भी उल्टी निकलती ही रहती है। और महाकाव्य रचने के लिए तो आपको पित्त रोगी ही बनना पड़ेगा। यशोधरा सदृश रचनाओं को पढ़ने तक के लिए भी, आपको पहले जमीन पाटना पड़ेगा। तो रचनाकारों आपके लिए है ये आवाहन: 

पहाड़ों पर जाएं, ज़मीन पाटें, उर्वरक डालें और चित्त/पित्त रोगी बनकर उल्टी करते हुए वापस लौटें।


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