Thursday, March 05, 2009

मन

तुम गगन, तुम्ही क्षितिज
गर्त तुम, अन्धकार तुम
ज्ञान के प्रकाष्ठ तुम

तुम्ही साहस, भय तुम
तुम्ही छल, पाप तुम

तुम विरोध, अवलंब तुम
तुम त्याग, प्रलोभन तुम

तुम विशाल, तुम प्रगाढ़
सूक्ष्म तुम, संकीर्ण तुम

तुम मंथन, शिथिल तुम
तुम लगाव, विरह तुम

तुम इर्ष्या, अवरोध तुम
तुम्ही मोड़, राह तुम
अन्जाम तुम

हे मानव मन -
जीवन सागर की अथाह में
तुम अमृत, विष भी तुम ।।

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दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...