Tuesday, March 03, 2009

चरमान्त

आज इस चरमान्त पर
सोचता हूँ मैं खड़ा

कैसे पहुंचा यहाँ तक
गुमाँ भी ना हो सका

धुंध पीछे दिख रही बस
सब कुछ उसमे है दबा

आगे दिखता क्यूँ नहीं कुछ
विचारों में क्यूँ द्वंद्व हुआ

एक अदना सी ज़िन्दगी से
हर किसी को यही डर है

पलट कर देखें उसे हम
और शून्य का एहसास है!!

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दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...