Monday, April 03, 2006

सेनापति

थक कर गिर जायेंगे सभी,
अंधकार आंखों में छा जाएगा,
मन अंग से पृथक होकर,
कहीं कोने में दुबक जाएगा।

आँखें मूँद लेंगे सभी,
डर, हर मन में घर बना -
और सशक्त हो जाएगा।
दिशाहीन - दिग्भ्रमित होकर
पथ बिना पग बढ़ जाएगा।

भय - अनिर्णय की ज़ंजीर तोड़कर,
किसी को आगे आना होगा,
तभी शब्द बाँध बह पायेगा,
दोष - आरोप के इस जाल को
उसी का बल क्षीण कर पायेगा।

उठो पार्थ !! गांडीव संभालो,
प्रत्युत्तर से तमस ढह जाएगा,
साहस तुम्हीं से मिलेगी सबको,
इतिहास तुम्हे स्वर्णिम कह जाएगा।

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दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...