Monday, April 10, 2006

समंदर

भव्य समंदर-
विस्मित कर
समेटे कितने प्राणों को।
विकराल कोई, खूंखार कोई
तैयार निगलने सब कुछ को।

प्रीत भरा वो मीन बचाता
ख़ुद को उन जलचर से
रहे जो तैयार सदा
हर चीज़ लाल रंगाने को।

भय उसे जल से परे भी,
झिझक नहीं जिन्हें मौत का -
दे लालच जो रहे ताक में,
उसे धर दबोच चबाने को।

प्रयास करे कोई कितना भी,
रंग सागर का बदलने को,
लाल भी हो जाए विफ़ल,
यह परिवर्तन लाने को ।
बना समंदर क्यूंकि -
एक ही रंग में रह जाने को।

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दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...