Tuesday, March 14, 2006

दो बूँद

कहीं कोने में दो बूँद आंसू के
सूखे पड़े थे, आज निकल पड़े..
इस निष्ठुर जीवन के गवाह थे वो आंसू
जाने आज कैसे निकल पड़े ?
कहीं लालच तो कहीं घृणित कर्मों -
ने मचाया था उफान;
फिर भी जाने क्यूँ थे सूखे हुए?
किसी के शब्दों ने भेदा था मन
कभी मर्म स्पर्श ने भरा कमान
तो कहीं उल्लास ने भरा रंग
संकुचित परम्परा ने रोका था कभी..
जाने आज कैसे निकल पड़े?
आकाँक्षाओं और अरमानों के बोझ ने
क्षीण किया था विश्वास,
कहीं छुपे-कहीं दबे हुए थे दो बूँद
जाने आज कैसे निकल पड़े?

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दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...