ये ए टी एम चौबीस घंटे खुला रहता है, पता था क्या?
यहॉं पर बेकरी है, अच्छा! इतनी सुबह खुल भी गया है! क्या बात है! लगता है कोई अपने उद्यम या कम से कम दिनचर्या को लेकर बहुत सीरियस है।
और ये देखिए खुदाई चल रही है, सुबह सुबह। जाने क्या ख़ज़ाना ढूँढ रहे हैं। या शायद रात भर लगे रहें हों, बड़ी मेहनत का काम है ये सब।
रोड के दोनों छोर भी कितने दूर लग रहे हैं। चालिस फीट की सड़क अब पचास की लग रही है। लेकिन यही आप एकाध पहर बाद आईये, मजाल है जो पैर रखने भर की भी जगह दिख जाए।
चौड़ाई जैसी भी हो, ये गड्ढे कहीं नहीं जाने वाले। इस वाले में तो उस दिन भी हिचकोले खाए थे। कैसे भूल सकते हैं। पिछली सीट पर से जो तानाकशी हुई थी, उफ़! अब कैसे समझाएँ कि दाहिने वाले बड़े गड्ढे से बचने के लिए हम बाएँ वाले की आग़ोश में आ गए थे।
किस किस को बताएँगे खुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है तो ज़माने के लिये आ
रंजिश ही सही...
बाप रे बाप! क्या फ़र्राटे से गाड़ी उड़ा रहे हैं, देखिए। चला ले भाई! कहाँ फिर ये तन्हाई और ये खुली फ़जा़। कम्बख़्त गड्ढे न होते तो तीन चार क़सीदे तो हम खुद पढ़ जाते।
रस्ता वही है बस समय का फेर है। इस पूरे एरिया की पर्सनालिटी ही बदली सी लगती है। सौ पचास की भीड़ जमा दीजिए और कुछ पार्क की हुई गाड़ियाँ, सब कुछ जाना पहचाना लगने लगेगा। किसी नार्मल टाईम और स्पेस में जाने कितनों को कोसा-गरियाया होगा यहॉं, पर अभी देखिए किसी मासूम बच्चे की तरह सो रहा है ये रस्ता।
वैसे ये भेद अमुमन किसी भी दीवार-ओ-दर पर लागू होता है।
बाशिंदों के बग़ैर घर सूना
घर कहॉं -
बेजान बेरंग खड़ी दीवारें, गारा और चूना।
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