रु-ब-रु होकर उनसे हुई बातें दो-चार
शब्द कुछ फंसे रह गए
कुछ बुनने मे हो गए बेकार ।
कंठ ने साथ न दिया या शब्द थे हैरान
बेखुद से, ठगे से रह गए,
भीढ़ हुई धुआं और दिमाग वीरान ।
यूँ ऐसे न प्रकट हुआ करो
हमारी नहीं तो धडकनों का ही ख्याल करो ;
तराशने का वक्त दो,
या गिनकर लम्हे भेज दो
खुशबू उनमे पीरो लूँगा,
कुछ नहीं तो लम्हे ही संजो लूँगा ।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
दिन
दिन बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...
-
डी की अनुशंसा पर हमने फ़िल नाइट लिखित किताब “शू-डॉग” पढ़ना शुरु किया। किताब तो दिलचस्प है जिसमें नाइट ने अपने जीवन और संघर्ष की विस्तृत जानक...
-
यह दिन बाकी दिनों के जैसा नहीं था। आज कार या बाइक की जगह हमने ऑफिस जाने के लिए कैब लेने का फ़ैसला लिया था। तबियत कुछ ख़राब थी और गला घोटने व...
-
थी जगह वही पर वीरानी लगती है। यादों के कोरों से निकालने पर पहचानी सी लगती है। वही रास्ता, वही चौक पर लोग बदले से लगते हैं इन मोड़ों पर, दुका...
No comments:
Post a Comment