रात मुझे भी टटोलने लगा अँधेरा
क्यूँ विचारों के रंग उस जैसे लगते हैं
झिझक क्यूँ अब भी रहती है ?
क्यूँ वो आशा मन को स्थिर नही करती
इतना कोलाहल क्यूँ हर जगह कायम है?
ज़िन्दगी कईयों की क्यूँ पथभ्रष्ट लगती है?
रात मुझे भी टटोलने लगा अँधेरा
ये जूनून सा मन में कैसे जग जाता है?
कैसे मौत का खौफ धुआं हो जाता है?
वस्फ़* की टोकरी क्यूँ तिरस्कृत पड़ी रहती है ?
अन्तर-द्वंद अब बस विचारों में क्यूँ है?
रात मुझे भी टटोलने लगा अँधेरा...
*वस्फ़- merit
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Aapki kavita achi hai.
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