Sunday, February 08, 2009

रात मुझे भी टटोलने लगा अँधेरा

रात मुझे भी टटोलने लगा अँधेरा
क्यूँ विचारों के रंग उस जैसे लगते हैं
झिझक क्यूँ अब भी रहती है ?

क्यूँ वो आशा मन को स्थिर नही करती
इतना कोलाहल क्यूँ हर जगह कायम है?
ज़िन्दगी कईयों की क्यूँ पथभ्रष्ट लगती है?

रात मुझे भी टटोलने लगा अँधेरा
ये जूनून सा मन में कैसे जग जाता है?
कैसे मौत का खौफ धुआं हो जाता है?

वस्फ़* की टोकरी क्यूँ तिरस्कृत पड़ी रहती है ?
अन्तर-द्वंद अब बस विचारों में क्यूँ है?
रात मुझे भी टटोलने लगा अँधेरा...

*वस्फ़- merit

1 comment:

दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...