Friday, May 24, 2019

रेखा

चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं।

-त्रिलोचन

ये अचरज हमने भी देखा है
अखबार सुबह जब हम पढ़ते हैं
मायरा की ऑंखें हम पर टिक जाती है-
क्या हो जाता है पॉप्सी को?
इन कागजों में ऐसा क्या है,
जो नजरें मुझसे हट जाती हैं
कहीं मोटी कहीं पतली
देखने में तो बस आड़ी तिरछी रेखा है।

No comments:

Post a Comment

दिन

दिन   बीत रहे हैं गुज़र रहे हैं फिसल रहे हैं खिसक रहे हैं लुढ़क रहे हैं नहीं रुक रहे हैं। हम गिन रहे हैं जोड़ रहे हैं जोह रहे हैं खो रहे हैं...