“चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं।”
-त्रिलोचन
ये अचरज हमने भी देखा है
अखबार सुबह जब हम पढ़ते हैं
मायरा की ऑंखें हम पर टिक जाती है-
क्या हो जाता है पॉप्सी को?
इन कागजों में ऐसा क्या है,
जो नजरें मुझसे हट जाती हैं
कहीं मोटी कहीं पतली
देखने में तो बस आड़ी तिरछी रेखा है।